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* ३९४ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट *
अन्तरकरण-विवक्षित कर्मों की अधस्तन और ऊपरी स्थितियों को छोड़ कर मध्यवर्ती अन्तर्मुहूर्त्त-प्रयाण स्थितियों के निषेकों का परिणाम-विशेष से अभाव करना।
अंतरंग क्रिया-स्व-समय और पर-समय को जानने रूप ज्ञान-क्रिया।
अन्तरात्मा-बहिरात्मा से आगे की और परमात्मा से पहले की अवस्था। आठ मदों से रहित हो कर देह और आत्मा के भेद को जानने वाला। शुद्ध चैतन्यमय आत्मा में जिन्हें आत्म-बुद्धि प्रादुर्भूत हुई है, ऐसे सम्यग्दृष्टि (चतुर्थ) गुणस्थान से ले कर बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान वाले जीव।
अन्तराय-किसी के ज्ञान, दान आदि में बाधा पहुँचाना।
अन्तरायकर्म-जो कर्म दाता और देय के बीच में बाधा बन कर आता है। जो कर्म दान आदि में रुकावट डालता है।
अन्तरिक्ष महानिमित्त-आकाशगत सूर्य, चन्द्र, तारा इत्यादि के उदय-अस्त अवस्था-विशेष को देख कर भूत-भविष्य-काल-सम्बन्धी फल को जानने की विद्या। ___ अन्तर्गति-एक गति को त्याग कर जीव जब तक दूसरी गति में नहीं पहुँच जाता, तव तक जन्म लेने से पहले जीव की मध्यवर्ती गति को अन्तर्गति कहते हैं। इसे विग्रहगति भी कहते हैं।
अन्तर्धान-अदृश्य होना। अन्तर्मल-अन्तरंग का मल। आत्मा का अन्तर्मल कर्म है। कषायादि भी अन्तर्मल है। अन्तर्नेत्र-दिव्य नेत्र, अन्तश्चक्षु, विवेकचक्षु। अन्तर्जल्प-अव्यक्तरूप से बोलना।
अन्तर्मुहूर्त-एक समय अधिक आवली से लगा कर एक समय कम मुहूर्त (४८ मिनट) का काल। ___ अन्तःकरण-इन्द्रियों से अधिक विवेक करने वाले मन, बुद्धि, चित्त और हृदय, ये चार अन्तःकरण हैं।
अन्तःशल्य-(I) दुष्प्रवृत्तियों को छिपाने पर होने वाली आन्तरिक चुभन। (II) अन्तःकरण में काँटे की तरह चुभने वाले दोषों की आलोचना अस्मिता के कारण न करना।
अन्तःशुद्धि-आलोचना एवं प्रायश्चित्त करके आत्मा की शुद्धि करना। अन्त्यसूक्ष्म-परमाणुगत सूक्ष्मता। अन्त्यस्थूल-जगद्व्यापी महास्कन्धगत स्थूलता। अन्ध-अकार्यरत, अज्ञानान्ध, विवेकचक्षुरहित।
अन्य-तीर्थसिद्ध-जैनसंघ के सिवाय अन्य संघ में रह कर जिसने रत्नत्रय की साधना से सिद्धि-मुक्ति (सर्वकर्मक्षय) प्राप्त की हो।
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