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* १४२ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
सम्बन्ध में चिन्तन-मनन- ध्यान - स्मरण करने पर वह व्यक्ति भी वीतरागता प्राप्त कर सकता है; ऐसी प्रतीति और विश्वास उसमें सुदृढ़ता से जम जाता है।
आचार्य हेमचन्द्र ने 'योगशास्त्र' में बताया है - " वीतराग (रागरहित) का ध्यान (चिन्तन-मनन- प्रणिधान) करने से मनुष्य स्वयं रागरहित होकर कर्मों से मुक्त हो जाता है, जबकि रागी (सराग ) का अवलम्बन लेने वाला मनुष्य विक्षेप या विभ पैदा करने वाले (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मात्सर्य, हर्ष, शोक, राग-द्वेषादि) सरागत्व को प्राप्त करता है । " "
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वीतराग के ध्यान व सान्निध्य से आत्मा में
वीतरागभाव का संचार
सिद्ध या मुक्त वीतराग परमात्माओं का स्वरूप परम निर्मल, शान्तिमय एवं वीतरागतायुक्त होता है। राग-द्वेष का रंग या उसका तनिक भी प्रभाव उनके स्वरूप में नहीं है। अतः उनका ध्यान, चिन्तन-मनन करने तथा अवलम्बन या सान्निध्य पाने से आत्मा में अनायास ही वीतरागभाव का संचार होता है। कहावत भी है‘जैसा संग, वैसा रंग।' सज्जन का सान्निध्य सुसंस्कार का और दुर्जन का सान्निध्य और संग कुसंस्कार का भाव पैदा करता है । अतः जब वीतराग प्रभु का सान्निध्य, सन्निकटता या संगति या प्रेरणा प्राप्त की जाती है, तब हृदय में अवश्य ही वीतरागता के भाव एवं संस्कार जाग्रत होते हैं। सान्निध्य या संगति पाने का अर्थ है - उनका नाम स्मरण, गुण-स्मरण, स्तवन, जप, स्तुति, नमन, गुणगान करना । इस प्रकार वीतराग प्रभु के सान्निध्य का जितना अधिक लाभ लिया जाता है, उतने ही मन के भाव, शुद्धि और उल्लास बढ़ते जाते हैं और सान्निध्यकर्त्ता का मोहावरण हटता जाता है तथा वह अधिकाधिक ज्ञाता - द्रष्टा होकर उच्च दशा पर पहुँच जाता है। उक्त सान्निध्य के सतत अभ्यास से उसकी राग-द्वेष की, विषमता की या मोह की वृत्तियाँ स्वतः शान्त होने लगती हैं और एक दिन वह तमाम कर्मों से मुक्त, मोहमुक्त जन्म-मरणादि से मुक्त, सर्वदुःखमुक्त होकर सिद्ध-परमात्मपद को प्राप्त कर लेता है।
सोये हुए परमात्मभाव को जगाने का अपूर्व साधन : शुद्ध भाव में रमणता
शरीर में रहा हुआ आत्मा तात्त्विक दृष्टि से तो परमात्मस्वरूप है, परन्तु वह कर्मों से आवृत होने के कारण अशुद्ध भाव में प्रवर्तमान है, जिसके कारण वह भवचक्र में भ्रमण करता है । अगर वह भावों से अपनी आत्मा को शुद्ध भाव में
१. वीतरागो विमुच्येत वीतरागं विचिन्तयन् ।
रागिणं तु समालम्ब्य रागी स्यात् क्षोभणादिकृत् ॥
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- योगशास्त्र प्र. ९/१३
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