Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 503
________________ * विषय सूची : छठा भाग * ३४९ * हुआ ४५१. बालमुनि अतिमुक्तक केवलज्ञानी हुए ४५२, जीव- हिंसा के इन सब पापों को त्यागने से पापकर्म से मुक्ति ४५२, सुलसकुमार जीवहत्या के व्यवसाय से सर्वथा मुक्त रहा ४५३, श्रेणिक राजा को नरक-प्राप्ति क्यों ? ४५३, (२) दूसरा मृषावाद नामक पापस्थान: क्या और कैसे-कैसे ? ४५४, असत्य के विभिन्न रूप और उनका फल दुर्गतिगमन ४५५, असत्य सेवन का दुष्परिणाम : नरकगमन ४५६, असत्य सेवन से विर होने का सुफल ४५६, (३) तृतीय पापस्थान : अदत्तादान क्या है ? ४५६, चौर्यकर्म के भयंकर परिणाम ४५६, चोरी वही करता है, जिसकी आत्मा के प्रति वफादारी नहीं है ४५७, चोरी करने वाला अशान्ति फैलाता है ४५७, सभ्यतापूर्ण चोरियाँ भी होती हैं ४५७, अदत्तादान के मुख्य आठ प्रकार ४५८, स्वामि-अदत्त आदि का भावार्थ, तात्पर्यार्थ ४५८, अभग्नसेन चोर को चौर्यकर्म की भयंकर सजा ४५९, चौर्यकर्म से विरत होने वाले ऊर्ध्वारोही हुए ४५९, (४) चतुर्थ अब्रह्मचर्य (मैथुन) पापस्थान : स्वरूप और उत्पत्ति ४६१, अब्रह्मचर्य पापस्थान : स्व-धर्म को छोड़कर पर-धर्म में रमण करने से ४६१, ब्रह्मचर्य आत्मा का स्वभाव है ४६२, निर्ग्रन्थ मुनिवर अब्रह्मचर्य का त्याग क्यों करते हैं ? ४६२, ब्रह्मचर्य से सभी प्रकार से लाभ ४६३, ब्रह्मचर्य एक : लक्षण अनेक ४६४, मैथुन सेवनरूप अब्रह्मचर्य के आठ अंग ४६५, अब्रह्मचर्य का फलितार्थ ४६५, एक अब्रह्मचर्य के सेवन से अन्य अनेक पाप ४६६, अब्रह्मचर्य से विरत होकर आध्यात्मिक विकास में ऊर्ध्वारोहण ४६६, (५) पंचम परिग्रह नामक पापस्थान : क्या और किस कारण से ? ४६७, पर-पदार्थों पर मूर्च्छा, आत्म-दृष्टि से विमुखता ४६७, पर भावों में आसक्तिपूर्वक झुकाव ही परिग्रह का कारण है ४६८, परिग्रहवृत्ति के कारण सभी पाप किये जाते हैं ४६८, अतिपरिग्रही सुख-शान्तिपूर्वक जीवन-यात्रा नहीं कर पाता ४६८, तीव्र परिग्रह-पापस्थान से नरकगामिता अवश्यम्भावी ४६९. पर-पदार्थों के प्रति परिग्रहवृत्ति होने से दुर्गतिगामी बनना पड़ा ४६९, परिग्रह: पापकर्मबन्धक और दुःख का कारण ४७०, साधुवर्ग के पास धर्मोपकरण होने पर भी परिग्रह नहीं ४७१, वस्तु को ममता- मूर्च्छापूर्वक रखने या संग्रह करने की वांछा ४७१, सम्यग्दृष्टि श्रमणोपासक वस्तुएँ रखते हुए भी अन्तर से निर्लिप्त ४७२, समय आने पर त्याग करते नहीं हिचके ४७२, श्रावक मुख्यतः बाह्य परिग्रह की मर्यादा करता है ४७३, बाह्य पदार्थ परिग्रहरूप कब ? ४७३-४७४ । (२३) अविरति से पतन, विरति से उत्थान - २ पृष्ठ ४७५ से ५०९ तक (६-९) चार कषायरूप चार पापस्थान: क्या, क्यों और कैसे ? ४७५, (१०-११) राग-द्वेष आदि सब पर-भावोपजीवी विभाव हैं ४७७, आत्म-द्रष्टा क्रोधादि अनिष्ट परिणामों से बचता है ४७७, (१२) कलह भी दूसरों की ओर देखने से होता है ४७८, कलह सभी कषायों आदि पापों का सामूहिक रूप है ४७८, कलह से घोर पापकर्मों का बन्ध और उसका कटुफल ४७९, कलह दूसरों के साथ रागादियुक्त सम्बन्ध जोड़ने से होता है ४७९, कलह से वचने के लिए सुन्दर सुझाव ४८०, (१३) अभ्याख्यान भी परदोष-दर्शन से होता है ४८०, महासती सीता पर लगे अभ्याख्यान से कितनी हानि ? ४८१, अभ्याख्यान पाप से बचने के लिए सुझाव ४८१, अभ्याख्यान के पाप से बचने का सुपरिणाम ४८१ धार्मिक-साम्प्रदायिक क्षेत्रों में भी अभ्याख्यान भयंकर है ४८२, अभ्याख्यानी द्वारा घोर कर्मबन्ध तथा कटुफल भोग ४८२, (१४) पैशुन्य नामक पापस्थान : क्या और क्यों होता है ? ४८३, अभ्याख्यान और पैशुन्य में अन्तर ४८३, पैशुन्यवृत्ति का दुर्व्यसन जीवन को नरक बना देता है ४८४, पैशुन्यवृत्ति के साथ-साथ अनेकों पाप और दुर्गुण ४८४, पैशुन्य पाप-सेवन का भयंकर दुष्परिणाम ४८५, चुगलखोरी से हानि ४८६, अभ्याख्यान और पैशुन्य से बचने के उपाय ४८६, (१५) पर-परिवाद भी भयंकर पापस्थान ४८६, पर-निन्दा के साथ कई दुर्गुण, कई पापस्थानों की वृद्धि ४८७, वीतराग परमात्मा की महानिन्दा, धर्मनिन्दा और गुरुनिन्दा के दुष्परिणाम ४८८, पर-निन्दा के पापकर्म से छूटने का एक उपाय गुणानुराग ४८९, गुण-दोषदृष्टि-परायणता की अपेक्षा से चार कोटि के मानव ४९०. आत्म-निन्दा से आत्म-शुद्धि, पर- निन्दा से पापकर्मवृद्धि ४९०, आत्म-निन्दा करने का उत्तम तरीका ४९१, विधिवत् आत्म-निन्दा से आत्म-शुद्धि ४९१, (१६) सोलहवाँ पापस्थान : रति - अरति : एक भयंकर पापचक्र ४९२, रति- अरति पापस्थान मनःकल्पित है, मनोगत है ४९३, रति-अरति तत्त्वविरुद्ध चिन्तनं = अशुभ चिन्तन से होती है ४९३, पौद्गलिक पदार्थ के बनने-बिगड़ने से रति - अरतिभाव ४९४, कर्मसिद्धान्त का ज्ञान न होने से रति-अरति पाप का सेवन होता है ४९५, शरीर की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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