Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 511
________________ * विषय-सूची : सातवाँ भाग * ३५७ * और कैसे ? २४५, सकामनिर्जरा के विभिन्न स्रोत २४५, सकामनिर्जरा के विभिन्न रूप २४७, सकामनिर्जरा के अन्य स्रोत २४८, तथारूप श्रमण-माहन को आहारादि देने से निर्जरा कैसे हुई ? २४९, श्रमण-माहन को दान देने से कौन-सी समाधि प्राप्त होती है ? २५१, पापकर्म से दुःख और उसकी निर्जरा करने से सुख २५२, कर्मनिर्जरा करने में सफल कौन, असफल कौन? २५२, सकामनिर्जरा : कर्मफल भोगने की कला २५३, सकामनिर्जरा के विविध अवसर आने पर निर्जरा कैसे करें २५४, बुद्ध शिष्य का उपसर्ग को समभाव से सहने का विधायक चिन्तन २५६, वीतराग केवली द्वारा निर्जरा का प्रस्तुत आदर्श : कैसे और क्यों ? २५६, चतुर्थ सुखशय्या : परीषह-उपसर्ग-सहन से होने वाली एकान्त निर्जरा २५८, राजर्षि उदायी ने समभाव से उपसर्ग सहकर महानिर्जरा की २५८, महापापी दृढ़प्रहारी निर्जरापेक्षी सर्वकर्ममुक्त हो गया २६०, कष्ट और आत्म-शुद्धि की अपेक्षा से चौभंगी २६१। (१०) सकामनिर्जरा का एक प्रबल कारण : सम्यक्तप पृष्ठ २६२ से ३०४ तक ये चीजें तपने पर ही सारभूत, परिष्कृत और उपयोगी बनती हैं २६२, निर्विकारता के लिए तपश्चर्या का ताप २६३, जीवन में तप की आवश्यकता और उपयोगिता २६३, समस्याओं पर विजय पाने का एकमात्र उपाय : सम्यक्तप २६४, तप दुःखात्मक है, मोक्षांग नहीं : आक्षेप का समाधान २६५, सम्यक्तप असातावेदनीय-बन्धकारक व दुःखोत्पादक नहीं २६६, सम्यक्तप से योगों और इन्द्रियों को हानि नहीं होती २६७, स्थूलशरीर को तपाने से तैजस्-कार्मणशरीर पर अचूक प्रभाव २६८, दुःख-दर्द उत्पन्न होता है कर्मशरीर में, प्रकट होता है स्थूलशरीर में २६९, स्थूलशरीर के माध्यम से कर्मशरीर को तपाया जाता है २६९, अज्ञानतप और सम्यक् (सज्ञान) तप में भारी अन्तर २७0, सम्यक्तप का उद्देश्य स्थूलशरीर के माध्यम से कर्मशरीर को तपाना है २७0, सम्यक्तप का निर्युक्त, अर्थ, लक्षण और उद्देश्यात्मक परिभाषा २७२, सम्यक्तप का फल है-व्यवदान = कर्ममल को दूर करना २७३, सम्यक्तप तन, मन को तपाकर आत्म-शुद्धि करता है २७३. सम्यक्तप का उद्देश्य और लाभ : वही उसका लक्षण २७४, सम्यक् निर्निदान तप से आत्मा की परिशुद्धि कैसे-कैसे? २७४, सम्यक्तप से आत्म-शुद्धि की प्रक्रिया २७५, मन, इन्द्रियाँ स्वस्थ और समाधिस्थ रहें. वहीं तक तप करना हितावह है २७५. सम्यकतप का उद्देश्य सिद्धियों के चक्कर में फँसना नहीं है २७७, इहलोक-परलोक-प्रशंसा-पूजादि के लिए तप न करो २७७, तप निर्जरा का कारण : कैसे और कब? २७८. अल्पतम सिद्धि के लिए महान साध्य को मत खोओ २७८. सम्यकतप का एकमात्र उद्देश्य : आत्म-शुद्धि और मोक्ष-प्राप्ति २७८, सम्यक्तप के साथ निदान से आत्म-शुद्धि की साधना नष्ट हो जाती है २७९, निदानकरण से कितनी हानि, कितना लाभ? २८0, भगवान महावीर ने श्रमण-श्रमणियों को निदान से विरत किया २८0, नौ प्रकार के निदान में कितनी अध्यात्म हानि, कितना भौतिक लाभ? २८३, सर्वत्र निदानरहित तप आदि साधना प्रशस्त एवं विहित २८४, ऐसे बाह्यतप को बालतप नहीं कहा जा सकता : क्यों और कैसे? २८५, सम्यक्तप और बालतप में बहुत अन्तर : समुचित समाधान २८६, बालतप संसारवृद्धि का कारण : क्यों और कैसे ? २८८, बाह्य-आभ्यन्तरतप से असमाधि या समाधि? : एक अनुचिन्तत २९०, आहारग्रहण से शक्ति और ऊष्मा के उपरान्त उत्तेजना भी होती है २९०, स्थूलशरीर को ही क्यों तपाया जाए? २९१, स्थलशरीर को तपाने से कितना लाभ. कितनी हानि? २९१, तप के पैंतीस प्रकार : कौन-से और कैसे-कैसे? २९२, सम्यग्ज्ञानयुक्त तप भगवदाज्ञा में और अज्ञानयुक्त तप आज्ञाबाह्य २९३, अज्ञानतप : संवर, निर्जरा और मोक्ष में बाधक : क्यों और कैसे? २९३, अशुद्ध तप और शुद्ध तप का विवेक २९४, बाह्यतप के छह प्रकार और उनका स्वरूप २९५, स्थूलशरीर द्वारा बाह्यतप क्या और कर्मशरीर पर उसका प्रभाव कैसे? २९६, तप से होने वाले परम लाभ के मुकाबले में कष्ट नगण्य २९७, किस बाह्यतप से क्या-क्या प्रयोजन सिद्ध होते हैं ? : एक आकलन २९८, देहासक्ति तोड़ने के लिए स्थूलशरीर द्वारा बाह्यतप करना आवश्यक २९९, बाह्यतप से देहासक्ति कैसे छूटती है, कैसे नहीं? ३00, समाधिमरण-संलेखना के लिए भी अनशनादि बाह्यतप का अभ्यास ३०१, समाधिमरण का सुपरिणाम और उससे सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष-प्राप्ति ३०२, यावज्जीव अनशन में आहारादि-त्याग के साथ देहासक्ति-त्याग आवश्यक ३०२, संलेखना-संथारे के समय देहासक्ति का पूर्णतः त्याग करने का पाट ३०३, देहासक्ति-त्याग के लिए इन आशंसाओं और अतिचारों से बचना आवश्यक ३०४। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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