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* ३६० * कर्मविज्ञान : परिशिष्ट *
जानना आवश्यक ४०५, आर्तध्यान का अर्थ ४०५, आर्तध्यान की उत्पत्ति के चार कारण ४०५. आर्तध्यान के चार लक्षण ४०५, रौद्रध्यान : स्वरूप, चार कारण एवं चार लक्षण ४०६, ये अशुभ ध्यान भी सर्वथा त्याज्य हैं ४०६, धर्मध्यान : स्वरूप और चार प्रकार ४0७, धर्मध्यान के चार लक्षण ४०८, धर्मध्यान के चार आलम्बन और चार अनुप्रेक्षाएँ ४०८, परवर्ती ध्यानयोगी विद्वान ने विविध विधियाँ प्रचलित की ४०८, ध्यान करने में मुख्य तीन तथ्यों पर विचार करना आवश्यक ४0८, ध्यान का चयन : स्व-भूमिका के अनुरूप ४०९, ध्येय के तीन प्रकार : स्वरूप और विश्लेषण ४१०, स्वरूपावलम्बन ध्येय में इनका भी समावेश हो सकता है ४११, स्वरूपावलम्बन ध्येय में सहायक पिण्डस्थ आदि ध्यान ४११, इस ध्येय में चित्त को दृढ़तापूर्वक स्थिर करने हेतु पाँच धारणाएँ ४१२, शुक्लध्यान : स्वरूप, भेद और प्रकार ४१३, शुक्लध्यानी आत्मा के चार लिंग (चिह्न) ४१५, शुक्लध्यान के चार आलम्बन ४१५, शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ ४१५, किस-किस गुणस्थान में कौन-कौन-सा ध्यान होता है ? ४१६, ध्यान के ज्ञातव्य चार अधिकारों में चौथा ध्यानफल ४१६, धर्म-शुक्लध्यान के लोकोत्तर और लौकिक सात्त्विक फल ४१६, ध्यान-साधना में अन्य आवश्यक बातें ४१७। (१४) व्युत्सर्गतप : देहातीत भाव का सोपान
पृष्ठ ४१८ से ४४७ तक ___व्यत्सर्गतप क्या है, क्या नहीं है? ४१८, व्युत्सर्ग कब त्याग है, कब नहीं? ४१९, व्युत्सर्ग : आभ्यन्तरतप : क्यों और कैसे? ४१९, व्युत्सर्ग की विविध परिभाषाएँ ४२०, व्युत्सर्गतप की निष्पत्ति ४२०, व्युत्सर्ग या कायोत्सर्ग की उपयोगिता और प्रयोजन ४२२, व्युत्सर्गतप के दो मुख्य प्रकार ४२३, व्युत्सर्गतप के दो प्रकारों में त्याज्य वस्तुएँ मुख्यतया सात ४२३, व्युत्सर्गतप के दो प्रकारों के क्रमशः चार
और सात भेद ४२३, काय-व्युत्सर्ग बनाम कायोत्सर्ग : स्वरूप और विश्लेषण ४२४, पूर्ण कायोत्सर्ग : योगत्रय के ध्यानपूर्वक होता है ४२४, ध्यान की पूर्व भूमिका के लिए द्रव्य-कायोत्सर्ग अनिवार्य ४२४, कायोत्सर्ग के दो रूप : द्रव्य और भाव ४२५, द्रव्य-भाव-कायोत्सर्ग की दृष्टि से चार प्रकार के कायोत्सर्ग ४२६, कायिक और मानसिक कायोत्सर्ग की विधि ४२७, कायोत्सर्ग : क्यों और कैसे? ४२८, शरीरादि पर-पदार्थ पर ममत्वादि होने से ही बन्धरूप हैं ४३०, शरीर को कायोत्सर्ग-योग्य बनाने हेतु शरीर और आत्मा की पृथक्ता का अभ्यास ४३०, कायोत्सर्ग में देह का नहीं, देहाध्यास का त्याग करें ४३१, शुद्ध कायोत्सर्ग का मापदण्ड ४३२, राजा चन्द्रावतंस की कायोत्सर्ग में दृढ़ता और शुद्धता ४३३, ये वीरतापूर्वक शरीर का व्युत्सर्ग करने वाले कायोत्सर्ग वीर ४३४, कायोत्सर्ग का महत्त्वपूर्ण अंग : अभय ४३४, महामुनि स्कन्धक के शिष्यों द्वारा वीरतापूर्वक हँसते-हँसते कायोत्सर्ग ४३५, भेदविज्ञान से प्राप्त सहिष्णुता भी कायोत्सर्ग का महत्त्वपूर्ण अंग ४३५, शरीर के प्रति अपनापन छोड़ने वाले कायोत्सर्ग वीर सुकौशल मुनि ४३६, कायोत्सर्ग में साधक का चिन्तन ४३७, प्रतिक्रमण तथा अन्य चर्या के समय भी कार्योत्सर्ग की भावना रहे ४३७, कायोत्सर्ग के दैनिक अभ्यास के समय साधक की भावना ४३८, कायोत्सर्ग के दो रूप : चेष्टा-कायोत्सर्ग और अभिभव-कायोत्सर्ग ४३८, कायोत्सर्ग के लिए जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में स्वार्थों का बलिदान जरूरी है ४३९, प्रायश्चित्तरूप कायोत्सर्ग : प्रयोजन और परिणाम ४३९, बिना भोगे भी पापकर्मों की शुद्धि हो सकती है ४४०, प्रायश्चित्तरूप कायोत्सर्ग से पापों-दोषों का विशोधन ४४१, गण-व्युत्सर्ग का फलितार्थ ४४१, गण साधना में उपकारी है तो इसे क्यों त्यागा जाय? ४४२, गण-व्युत्सर्ग के सात कारण ४४२, उपधि-व्युत्सर्ग : क्या और कैसे ? ४४३, भाव-व्युत्सर्ग के प्रकार और स्वरूप ४४४, क्रोध-व्युत्सर्ग का ज्वलन्त उदाहरण : चण्डकौशिक सर्प का ४४४, अहंकार-व्युत्सर्ग का प्रभाव ४४५, संसार-व्युत्सर्ग : क्या
और कैसे हो? ४४५, द्रव्य-संसार और भाव-संसार को कम करने के अचूक उपाय ४४६, कर्म व्युत्सर्ग : क्या और कैसे-कैसे? ४४६-४४७। (१५) भेदविज्ञान की विराट् साधना
. पृष्ठ ४४८ से ४७0 तक मुख्यता किसकी और किसकी नहीं ? ४४८, हम किसको मुख्यता दे रहे हैं ? : देहरूपी देवालय को या आत्म-देव को? ४४८, शरीर की चिन्ता : आत्म-देवता की उपेक्षा ४४९, आत्मा की सार-सँभाल की कोई चिन्ता नहीं ४४९, आत्म-देव की उपेक्षा करने से असन्तोष ४५0, अविनाशी आत्मा के प्रति लापरवाही की
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