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* विषय सूची : सातवाँ भाग * ३५९ *
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३५३. लोकोत्तर उपचार विनय के प्रकार ३५५, ये विनय नहीं विनयाभास हैं, मोक्षविनय ही ग्राह्य ३५५. विनय : धर्मरूपी वृक्ष का मूल. मोक्षरूप फल का दाता ३५६. विनय : समस्त गुणों का मूलाधार; अविनय : दापों का भण्डार ३५६, वैयावृत्यतप की आवश्यकता और उपयोगिता ३५७, सेवा के ये अगणित प्रकार वैयावृत्य की कोटि में नहीं आते ३५७, समाज में परस्पर उपकारयुक्त सेवा के विविध प्रकार ३५८, पूर्वोक्त सेवा पुण्यबन्ध का कारण है और वैयावृत्य है तप ३५९, वैयावृत्य की मुख्य पाँच क्रियाएँ ३५९, वैयावृत्य का व्यवहारस्वरूप : पूर्वोक्त पंचप्रक्रिया से युक्त ३६०, वैयावृत्य के पात्रों और पूर्वोक्त सेवापात्रों में अन्तर ३६१. वैयावृत्यकर्त्ता की हार्दिक भावना ३६२, इसीलिए वैयावृत्य आभ्यन्तरतप है ३६२, वैयावृत्यकर्त्ता की कतिपय विशेषताएँ ३६३, वैयावृत्य का प्रयोजन और सुफल ३६३, त्रिविध वैयावृत्य आत्म-वैयावृत्य में ही गतार्थ ३६४, उत्कृष्ट पात्रों की अपेक्षा दशविध वैयावृत्य ३६५, दशविध उत्तम पात्रों की वैयावृत्य से महालाभ ३६८, तीर्थंकरत्व-प्राप्ति के अधिकांश गुणों का वैयावृत्ययोगयुक्तता में अन्तर्भाव ३६९, वैयावृत्य का महान् पुण्यफल : तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि पद ३७०, भरत और बाहुबली को वैयावृत्यतप से विशिष्ट उपलब्धि ३७०, वैयावृत्य से उत्कृष्ट पुण्योपार्जन तथा संवर- निर्जरा एक चिन्तन ३७३. तीर्थंकर और चक्रवर्तीपद की प्राप्ति में कर्मनिर्जरा भी होती है ३७३, वैयावृत्य से संवर, निर्जरा, महानिर्जरा और मोक्ष की प्राप्ति भी सुलभ ३७३. वैयावृत्यतप सामान्य आत्मा को परमात्मपद प्राप्त करा देता है ३७४, भगवान की शारीरिक सेवा से भी ग्लान की सेवा बढ़कर है ३७५, आत्म- वैयावृत्य और पर- वैयावृत्य से सम्बन्धित आठ शिक्षाएँ ३७५, वैयावृत्य से विमुख साधक गुरु-चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का भागी ३७६ ।
(१३) स्वाध्याय और ध्यान द्वारा कर्मों से शीघ्र मुक्ति
पृष्ठ ३७७ से ४१७ तक
विनय, वैयावृत्य के बाद स्वाध्याय, ध्यान का निर्देश क्यों ? ३७७, स्वाध्याय : अंदर का चेहरा देखने के लिए दर्पण है ३७७, स्वाध्याय आन्तरिक तप क्यों है ? ३७७ स्वाध्याय : अन्तर्निहित ज्ञान को प्रकाशित करने हेतु दीपक है ३७८, स्वाध्याय: नन्दनवन के समान आनन्ददायक है ३७८, स्वाध्याय : अज्ञानमूलक दुःखों के निवारण का उपाय बताता है ३७९, स्वाध्याय : अज्ञान से आवृत आत्म-ज्ञान को अनावृत करने का माध्यम ३८०. स्वाध्याय से क्लिष्ट चित्तवृत्ति-निरोधक योग की प्राप्ति ३८०, स्वाध्याय और ध्यान, दोनों परस्पराश्रित हैं ३८०, स्वाध्याय और ध्यान का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध ३८०, स्वाध्याय से श्रुतसमाधि की उपलब्धि ३८१, स्वाध्याय से अन्य अनेक लाभ ३८१, शास्त्र - अध्यापन के रूप में स्वाध्याय करने से पाँच महालाभ ३८२. स्वाध्याय सात आध्यात्मिक लाभ ३८२, स्वाध्याय का विशिष्ट फल ३८३, स्वाध्याय के उत्तम फल ३८३ स्वाध्याय के लौकिक और लोकोत्तर फल ३८५, नियमित स्वाध्याय से श्रुतदेवता द्वारा पाँच वरदानों की उपलब्धि ३८५, स्वाध्याय आत्मिक विकास के लिए व्यायाम और भोजन ३८७, स्वाध्याय में प्रमाद मत करना ३८७, स्वाध्याय अद्भुत तप: क्यों और कैसे ? ३८७, स्वाध्याय के विभिन्न अर्थ और स्वरूप ३८८, अश्लील या हिंसादि - प्रेरक साहित्य पढ़ना स्वाध्याय नहीं है ३८९, सम्यग्दर्शन और आत्म-भावों से रहित स्वाध्याय कर्मनिर्जरा का कारण नहीं ३८९, बाहर की चाँदनी को छोड़ भीतर की चाँदनी विरले ही देखते हैं ३९० भीतर की चाँदनी अन्तःस्वाध्याय से देखने वाले ये महाभाग ३९०, स्वाध्याय के पाँच प्रकार ३९१, वाचना- स्वाध्याय में तीन बातों का ध्यान रखना अत्यावश्यक ३९२, वाचना देने-लेने के अयोग्य व योग्य कौन-कौन ? ३९२, स्वाध्यायकर्त्ता को इन दोषों और अतिचारों से बचना आवश्यक है ३९६, स्वाध्याय और ध्यान दोनों परस्पर सहायक, परन्तु ध्यान बढ़कर ३९६. द्वादशतप के शेष सव प्रकार ध्यानद्वय के साधनमात्र हैं ३९७, स्वाध्याय की अपेक्षा ध्यान का. अधिक महत्त्व ३९७. ध्यान क्यों किया जाए? ध्यान का प्रयोजन क्या है ? ३९८. ध्यान-साधना के मुख्य हेतु ३९९, ध्यान का महत्त्व : विभिन्न दृष्टिकोणों से ४००, व्यवहारदृष्टि से ध्यान की परिभाषाएँ ४०१, क्या इन्हें भी ध्यान कहेंगे ? ४०२, ध्यान के दो प्रकार व चार भेद ४०२, प्रशस्त और अप्रशस्त ध्यान : स्वरूप और अन्तर ४०३. अशुभ ध्यान तप के कारण नहीं, न ही मोक्ष के हेतु ४०३, जीवों के आशय की अपेक्षा से ध्यान के तीन प्रकार ४०३. निश्चयदृष्टि और व्यवहारदृष्टि से ध्यान के दो प्रकार ४०४, शुद्ध ध्यान एवं उसके परम्परागत फल ४०४, प्रशस्तध्यान के लिए अप्रशस्तध्यान के स्वरूपादि को
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