Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 523
________________ * विषय-सूची : आठवाँ भाग * ३६९ * बोल-कषाय को पतली करके निर्मूल करे तो जीव वेगो-वेगो मोक्ष में जाय २८७, मोक्षपथिक के लिए कषाय-त्याग जरूरी २८७, कषाय-विजय और कषाय-क्षय के लिए विभिन्न द्वार-निर्देश २८७, सातवाँ बोलषड्जीव-निकाय की रक्षा करे तो जीव वेगो-वेगो मोक्ष में जाय २८८, जो जीव और अजीव को नहीं जानता, वह संयमाराधक नहीं हो सकता २८८, व्यवहारदृष्टि से जीव को दशविध प्राणों से वियुक्त करना हिंसा है २८९, हिंसा के पाँच कारण : अशुभ कर्मबन्ध के हेतु २८९, हिंसा कहाँ-कहाँ, कैसे-कैसे? जीवरक्षा के अमोघ उपाय और भाव २९०. आत्मा कब हिंसारूप बन जाती है. कब अहिंसारूप? २९०. जीवरक्षा के लिए उत्कृष्ट करुणाभाव से सर्वकर्ममुक्त होने वाले २९०, आठवाँ बोल-सुपात्रदान तथा अभयदान देवे तो जीव वेगो-वेगो मोक्ष में जाय २९१, अभयदान का माहात्म्य, स्वरूप, प्रकार और विश्लेषण २९३, मोक्ष के चतुर्थ अंग : सम्यक्तप के सन्दर्भ में सात बोल २९४, पहला बोल-(मोक्षदृष्टि से) उग्रतप करे तो जीव वेगो-वेगो मोक्ष में जाय २९४, भोगजनित ताप पीडाकारक : उग्रतप अल्पपीड़ाकारक परिणाम में सुखदायक २९५, आत्म-शुद्धि और गुणवृद्धि के लिए उग्रतप करना आवश्यक २९६, ये भी उग्रतप में समाविष्ट हैं २९६, बाह्य और आभ्यन्तरतप : प्रकार, परस्परपूरक, सहायक, संरक्षक २९७, बाह्य और आभ्यन्तरतप के मुख्य प्रयोजन २९७, उग्रतप : क्या. और कैसे-कैसे? २९८, सम्यकआचरित बाह्याभ्यन्तरतप : शीघ्र भवभ्रमण से मुक्ति २९८, सम्यक्तप : निश्चय-व्यवहारदृष्टि से तथा द्रव्य-भावदृष्टि से २९८, सम्यग्ज्ञानयुक्त और अज्ञानतप तथा अशुद्धतप और शुद्धतप का अन्तर २९८, ऐसे घोर पापकर्म-बन्धक तपों से मुमुक्ष दूर रहे २९९, दूसरा बोल-पाँचों इन्द्रियों को वश करे. अन्तर्मुखी करे तो जीव वेगो-वेगो मोक्ष में जाय ३00, इन्द्रिय-विषय : प्रकार तथा विषयाधीनता के तीन स्तर ३०१, इन्द्रिय-निग्रह के चार प्रकार ३०१, विषयासक्ति निवारणार्थ : विषयों के प्रति निर्वेद और उसके लिए पाँच अनुप्रेक्षाएँ ३०१, विषयों का ज्ञान होने पर वेदन और विकार न आने दे ३०२, प्रत्येक कार्य में जिनाज्ञा और वीतराग-आत्मा के आदेश का स्मरण करे ३०२, विषय-सुखों की दुःखरूपता आदि का भी स्मरण करे ३०२, इन्द्रिय-निग्रह के लिए आत्म-जागृति और सावधानी आवश्यक है ३०३, इन्द्रिय-निग्रह का शीघ्र मुक्तिरूप फल ३०३, तीसरा बोल-दस प्रकार की वेयावच्च करे तो जीव वेगो-वेगो मोक्ष में जाय ३०३, चौथा बोल-उत्तम ध्यान करे तो जीव वेगो-वेगो मोक्ष में जाय ३०४. पाँचवाँ बोल-लगे हए पापों की तुरंत आलोचना करे तो जीव वेगो-वेगो मोक्ष में जाय ३०६, आलोचना से शीघ्र मुक्ति : कैसे-कैसे? ३०६, छठा बोल-यथासमय आवश्यक (प्रतिक्रमणादि) करने से जीव वेगो-वेगो मोक्ष में जाय ३०७, सातवाँ बोल-अन्तिम समय में संलेखना-संथारासहित पण्डित-मरण प्राप्त करे तो जीव वेगो-वेगो मोक्ष में जाय ३०८-३०९। (१२) मोक्ष अवश्यम्भावी : किनको और कब ? पृष्ठ ३१० से ३३१ तक ___ मोक्ष की अवश्यम्भाविता के अधिकारी का विचार करना आवश्यक ३१0, विभिन्न पहलुओं और दृष्टियों से मोक्ष की अवश्यम्भाविता ३११, जिनको पर-भव से मुक्तिरूप फल मिलना निश्चित है ३११, निश्चयदृष्टि से मोक्ष की अवश्यम्भाविता का आश्वासक सूत्र ३१२, आराधक सरागसंयमी, अनुत्तरीपपातिक देवलोक के बाद अगले भव में मुक्त ३१३, संयमासंयमी श्रमणोपासक-श्रमणोपासिकाएँ ३१४, दान की उत्कृष्ट भावना से जीर्ण सेठ बारहवें देवलोक में, वहाँ से अगले भव में मोक्ष प्राप्त करेगा ३१४, आहार-शरीरादि में दृढ़ संयमी ब्रह्मचर्यनिष्ठ जुट्ठल श्रावक ३१५. अकामनिर्जरा और बालतप से देव-भव मिल सकता है ३१५, प्रदेशी राजा भी श्रावकव्रती बनकर समाधिमरणपूर्वक सूर्याभदेव बना ३१५, अम्बड़ परिव्राजक श्रावकव्रतों का पालन कर ब्रह्मलोक में देव बना ३१६, संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय-पर्याप्तक के द्वारा द्वितीय भव में मोक्ष-प्राप्ति ३१६. सप्त लव कम आयु वाले मानव को भी सर्वार्थसिद्ध देवलोक में जाना पड़ा ३१८, आराधक श्रमण निर्ग्रन्थों और श्रमणोपासकों को उत्तम देवलोक या मोक्ष की प्राप्ति ३१९, अन्नग्लायक श्रमण निर्ग्रन्थ को महानिर्जरा और महापर्यवसान की उपलब्धि ३१९, प्रासुकभोजी मृतादी निर्ग्रन्थ : कौन भवान्तकारक, कौन भवभ्रमणकारी? ३२१, एषणीय आहारादि भोजी श्रमण निर्ग्रन्थ संसार पारगामी ३२१, क्षीणकांक्षा-प्रदोष श्रमण निर्ग्रन्थ अन्तकर अथवा अन्तिम शरीरी हो जाता है ३२२, ज्ञान-दर्शन-चारित्र की उत्कृष्ट. मध्यम, जघन्य आराधना का फल ३२२, कर्तव्य-दायित्व वहनकर्ता आचार्य और उपाध्याय कितने भवों में मुक्त होते हैं ? ३२२, संवेग आदि कतिपय गुणों से मोक्षफल-प्राप्ति ३२३, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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