Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 502
________________ * ३४८ * कर्मविज्ञान : परिशिष्ट * का साधक ३९०, निश्चय - सम्यग्दर्शन : आत्मा के प्रति श्रद्धा, प्रतीति विनिश्चिति ३९०, निश्चयसम्यग्दर्शन : आत्मा से ही सीधा सम्बन्धित ३९१, निश्चय - सम्यग्दर्शन होने पर ही व्यवहार-सम्यग्दर्शन सफल ३९१, व्यवहार-सम्यग्दर्शन के दो प्रसिद्ध लक्षण और उनका स्वरूप ३९२, तत्त्वभूत पदार्थों पर श्रद्धान : कुछ शंका-समाधान ३९२, देव, गुरु और धर्म तत्त्व : सच्चे झूठे की पहचान ३९३, देव गुरु-धर्म पर श्रद्धा: क्यो और कैसे ? ३९४, सम्यक्त्व-संवर की साधना के दो रूप ३९५, निश्चय - सम्यक्त्व-संवर की साधना ३९६. व्यवहार - सम्यक्त्व-संवर की साधना में सावधानी ४०३, सम्यक्त्व-संवर-साधक के लिए उपादेय ४०६, धर्म का व्यावहारिक दृष्टि-सम्मत लक्षण ४०७, शास्त्र या गुरु का लक्षण ४०७, सम्यक्त्व-संवर की साधना मिथ्यात्व - आम्रवों का निरोध ४०८, सम्यग्दर्शन की विशुद्धि : संवर का मूल कारण ४०९, सम्यक्त्व की विशुद्धि और सुरक्षा के लिए सरसठ बोल ४११, सम्यक्त्व - संवर में स्थिरता के लिए आवश्यक भावसम्पदा ४१४, सम्यक्त्व-संवर के लिए सम्यक्त्व के आठ अंगों का पालन करना अनिवार्य है ४१५, कांक्षा-मोहनीय कर्म के वेदन के कारण और निवारण ४१६ ४१९ । (२१) विरति-संवर: क्यों, क्या और कैसे ? पृष्ठ ४२० से ४४९ तक सुविधावाद का लक्ष्य : अधिकाधिक पदार्थोपभोग ४२०, भौतिकवाद द्वारा सुविधावाद को अत्यधिक उत्तेजन ४२१, सुविधावाद का दुष्परिणाम ४२२, सुविधावादी लोगों का पदार्थों के स्वच्छन्द उपभोग-विपयक तर्क ४२२, ज्ञानपूर्वक अभावयुक्त जीवन जीने वाला दुःखी नहीं ४२३, अज्ञानादि जीवन जीने वाला दुःखी है ४२४, सुविधाओं से सुख मिलता है, यह भ्रान्ति है ४२४, सुविधावादी का जीवन अनैतिकता के शिकंजों में ४२५, प्रकृतिदत्त चीजों को बर्बाद करने का अधिकार नहीं ४२५, संसार की सभी वस्तुओं पर एक व्यक्ति का अधिकार नहीं ४२५, सुविधा के प्रायः सभी साधन प्रकृति-विरुद्ध और कृत्रिम हैं ४२५, सुविधावादी का दृष्टिकोण ४२६, सुविधावाद के साथ स्वच्छन्द भोगवाद की लहर आई ४२७, व्रत-नियम आदि बन्धनरूप नहीं, रक्षणरूप हैं ४२७, कुत्तों के लिए गलपट्टे का बन्धन सुरक्षारूप बना ४२८, उपभोग-परिभोग-परिमाणव्रत ४२९, महारम्भी महापरिग्रही के लिए व्रताचरण दुःशक्य ४३०, अशान्ति अविरतियुक्त जीवन से विरतियुक्त जीवन की ओर ४३१, विरति से ही सुख-शान्ति, कर्ममुक्ति या सुगति सम्भव है ४३३, एकान्त अविरति क्या है, क्या नहीं ? ४३३, सप्त कुव्यसनों से अविरति का भयंकर दुष्परिणाम ४३४, आत्मिक गुणों की रक्षा हेतु विरति पर दृढ़ रहने के परिणाम ४३६, अविरति : स्वरूप, परिणाम, फल और स्थान ४३७, अविरत जीव का अन्धकारमय भविष्य ४३८, विरत जीव का लक्षण और फल-प्राप्ति ४३८, विरति-संवर के प्रकार, विधि, स्वरूप और उद्देश्य ४३९, प्रत्याख्यान : कब सुप्रत्याख्यान, कब दुष्प्रत्याख्यान ? ४३९, नियम और व्रत, प्रत्याख्यान का अन्तर ४४०, विरति - संवर का अनन्तर और परम्परागत फल ४४०, प्रत्याख्यान: आम्रवों और इच्छाओं का निरोधक ४४१, प्रत्याख्यान का अर्थ, लाभ और स्वरूप ४४१, प्रत्याख्यान के विविध रूप ४४२, अध्यात्म-साधना के लिए नवविध प्रत्याख्यान ४४२. व्रतबद्धता से जीवन मूल्यों में परिवर्तन ४४३, गृहस्थवर्ग और साधुवर्ग लिए व्रत-साधना का विधान ४४४, व्रतबद्ध या प्रतिज्ञाबद्ध न होना, अनिश्चय और अविश्वास की स्थिति में जीना है ४४५, व्रतविहीन जीवन : निरंकुश एवं ध्येय से डिगाने वाला ४४६, अन्यतीर्थिकों की पापकर्म के सम्बन्ध में मान्यता ४४६, भगवान महावीर की पापकर्म सम्बन्धी स्पष्ट मान्यता ४४६, जो प्रत्याख्यान नहीं करते, वे सभी पापकर्मभागी ४४७, असंयत- अविरत आत्मा अठारह पापों का कारण क्यों ? ४४७, यह सिद्धान्त सभी असंयत-अविरत प्राणियों के लिए है ४४८, अप्रत्याख्यानी जीव पाप में प्रवृत्त न हों, तो भी पाप के भागी ४४८, असंयत व्यक्ति के पाँचों इन्द्रिय-विषय जाग्रत जीव-अजीव कायिक त्रिकरण - त्रियोग सम्वन्धी असमय चालू ४४८, असंयमी - अविरत जीव के पापों का स्रोत बहता रहता है ४४९, साधक के लिए विरति-संवर की साधना अनिवार्य ४४९ । (२२) अविरति से पतन, विरति से उत्थान - १ पृष्ठ ४५० से ४७४ तक 'पर' को देखने से प्रवृत्ति और 'स्व' को देखने से निवृत्ति ४५०. प्राणातिपात भी पर-पदार्थ को देखने से होता है ४५०, (१) हिंसा- पापस्थान से विरति कैसे ? ४५१, हत्यारा दृढ़प्रहारी आत्मध्यानी होकर विरत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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