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* ३४६ * कर्मविज्ञान : परिशिष्ट *
नोकषाय २९९, वैर से नहीं, अवैर (मैत्रीभाव) से ही वैर शान्त होता है २९९, मैत्रीभाव में प्रवृत्त होने के लिए पाँच चिन्तनसूत्र ३०३, पाँच चिन्तनसूत्रों पर विश्लेषण ३०३, महात्मा गांधी जी के जीवन में पाँचों चिन्तनसूत्र थे ३०५, गांधी जी के दाक्षिण्य गुण का एक उदाहरण ३०५, सहजमित्र और कृतमित्र ३०६, आध्यात्मिक जगत् में मैत्री के लिए दूसरे की जरूरत नहीं ३०६, दूसरों का अहित सोचने वाली आत्मा अपना ही अहित ज्यादा करती है ३०७, हिंसा आदि करके आत्मा स्वयं अपनी ही हिंसा करती है ३०७, हिंसादि करने वाले आत्मा को शत्रु बनाकर अपना ही अनिष्ट करते हैं ३०७, सभी आत्माएँ स्वरूप की दृष्टि से समान ३०८, आत्मा को कब मित्र मानें, कब शत्रु मानें? ३०९, अपनी आत्मा की शुद्धि या अशुद्धि अपने हाथ में ३०९, गीता की दृष्टि में आत्मा ही आत्मा का बन्धु और शत्रु है ३१0, गजसुकुमार मुनि ने आत्मा को शत्रु होने से बचाकर मित्र बनाया ३१0, आत्मा को मित्र बनाने हेतु अपनी दृष्टि आदि बदलनी है ३११, आत्म-मैत्री का रहस्यार्थ ३११, सभी सजीव-निर्जीव पर-पदार्थ या विभाव आत्म-बाह्य हैं, उनके साथ मैत्री कैसी? ३१२, आत्मा से मैत्री-सम्बन्ध ही इष्ट ३१२, संयोग-सम्बन्धजनित मैत्री कितनी दुःखदायी, कितनी आत्म-मैत्री विस्मृतिकारिणी? ३१३-३१४। . (१७) विविध दुःखों के साथ मैत्री आत्म-मैत्री है
पृष्ठ ३१५ से ३३८ तक आत्मा को मित्र बनाने के बजाय शत्रु क्यों बना लेता है ? ३१५, ऐसी स्थिति में आत्म-मैत्री कैसे हो सकती है ? ३१५, चिकित्सा क्षेत्र में दवा पीड़ा शान्त करने का अस्थायी उपचार है ३१६, दुःख क्यों आते हैं ? उन्हें कौन देता है ? ३१६, स्वाश्रित सुख-दुःख को पराश्रित मानने से दुःख बढ़ता है ३१६, सुख-दुःख स्वकृत मानने से लाभ : कैसे और किस उपाय से? ३१७, दुःख को अन्य कृत मानने वाले के प्रयल ३१८, सुख-दुःखानुभव अपने दोषों के कारण होता है ३१८, आत्मा शत्रु और मित्र : स्व-दोषों के कारण ३१९, दुःख का कारण स्वयं को मानने से दुःख-मैत्री ३१९, अपने दुःखों का कारण 'स्व' को मानिये ३१९, विपरीत परिस्थितियों में भी आत्म-मैत्री कायम रखने का उपाय ३२०, जो भी परिस्थिति प्राप्त है, उसी का सदुपयोग कर आगे बढ़ना है ३२१, दुःख-मैत्री- साधक द्वारा संवर-निर्जरा धर्म का अनुप्रेक्षण ३२२, अहंकारवश जीने वाले ये पापकर्म के प्रति निःशंक लोग ३२२. पापकर्म उदय में आने पर उन्हें नानी याद आ जाती है ३२३, पापकर्मियों की अन्तिम समय में करुण मृत्यु से बोध पाठ लो ३२३. सुख के प्रचुर साधन होने से कोई सुखी नहीं हो जाता ३२५, दुःख वस्तुओं के अभाव में नहीं, कामनोत्पत्ति में है ३२६. संसार में अनेक प्रकार के दुःख, उनके विभिन्न रूप और प्रकार ३२६. समस्त दुःखों के मूल कारण और उनके निवारण के दो मुख्य उपाय ३२७, सुख और दुःख राग और द्वेष के कारण : क्यों और कैसे ३२७, राग-द्वेष का क्षय करना ही एकान्त मोक्ष-सुख का कारण ३२८, दुःखों के साथ मैत्री का फलितार्थ : वीतरागभाव या समभाव ३२८, चार दुःखों में अन्य सभी दुःखों का समावेश ३२९, जन्म दुःखमय है, इसे सुखमय बनाने हेतु जन्म-मरण का अन्त करो ३२९, रोगादि दुःखों को मित्र बनाने की पद्धति ३३०. रोग के साथ मैत्री करने के लिए चिन्ता आदि से छुटकारा ३३१, अभय और निश्चिन्तता से आत्माभिमुखी मैत्री ३३१, दृढ़ आस्थापूर्वक जप से कैंसर रोग मिट गया ३३२, आस्था के साथ भावना से रोग के साथ मैत्री स्थापित होती है ३३३, संकल्प-बल भी रोग के साथ मैत्री का अद्भुत उपाय ३३३, कप्ट-सहिष्णुता भी रोग के साथ मैत्री करने का अचूक उपाय ३३३, शुभ ध्यान से दुहरा लाभ ३३४. वृद्धावस्था के साथ मैत्री : एक अनुचिन्तन ३३४, बुढ़ापे के साथ मैत्री करने के पाँच मुख्य सूत्र ३३५. अनाग्रहीवृत्ति : बुढ़ापे के साथ सुखद मैत्री का उपाय ३३५, प्रत्येक परिस्थिति में स्वयं को एडजस्ट करना मैत्री का मंत्र ३३५, बुढ़ापे में गृह-परिवार की चिन्ता से मुक्त होकर समाज-सेवा में लगे ३३५. इन्द्रिय-संयम, ज्ञाता-द्रप्टाभाव : बुढ़ापे के साथ मैत्री का एक सूत्र ३३६. बुढ़ापे के साथ मैत्री के लिए आहार-विहार संयम जरूरी ३३६. बुढ़ापे को मधुर के बजाय दुःखद और कटु न बनाएँ ३३७, मृत्यु के साथ मैत्री : एक अनुचिन्तन ३३७-३३८। (१८) परीषह-विजय : उपयोगिता, स्वरूप और उपाय
पृष्ठ ३३९ से ३६१ तक दुःखमुक्ति का राजमार्ग ३३९, दुःखमुक्ति : कब और कब नहीं? ३३९, परीपह-विजय का रहस्य ३३९, सुख-सुविधावादी का उभयलोक दुःखकर ३४0, स्वैच्छिक कप्ट-सहन : सुखद जीवन का नुस्खा
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