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* विषय-सूची : छठा भाग * ३४५ *
आवश्यकता और उपयोगिता २६१, धर्म के नाम पर चलने वाले धर्म-भ्रम २६२, धर्म का वास्तविक स्वरूप क्या है ? २६२, धर्म क्या है, क्या करता है ? २६३, धर्म ही संवर, निर्जरा और मोक्ष का अवसर देने में समर्थ २६३, संकटों के समय सहन-शक्ति देने वाला धर्म ही है २६४, संवेग के विभिन्न प्रसिद्ध अर्थ और धर्मश्रद्धारूप अनुप्रेक्षा का अनन्तर-परस्पर फल २६५, धर्मानुप्रेक्षक क्या चिन्तन करें ? २६५, धर्मानुप्रेक्षक का विशिष्ट धर्म-चिन्तन २६६, अर्हन्त्रक और धर्मरुचि : धर्मानुप्रेक्षा की प्रखर निष्ठा के ज्वलन्त उदाहरण २६७-२६८। (१५) मैत्री आदि चार भावनाओं का प्रभाव
पृष्ठ २६९ से २९४ तक __ मैत्री आदि चार भावनाओं की उपयोगिता क्या ? २६९, समूहबद्ध होने पर अनेक दोषों का उत्पन्न होना सम्भव २६९, विषमतामय संसार में चार कोटि के जीवों का संसर्ग व सम्पर्क २७०, चार कोटि के जीवों के साथ सम्पर्क होने पर चित्त में राग-द्वेषादि कालुष्य की उत्पत्ति २७०, चित्त की प्रसन्नता और निर्मलता के लिए चार भावनाएँ २७१, आत्मा को समभावनिष्ठ बनाने हेतु चार भावनाओं की अभ्यर्थना २७१, चार भावनाओं की उपयोगिता : अहिंसादि व्रतों की सुरक्षा के लिए २७२, चारों भावनाओं से आध्यात्मिक और सामाजिक लाभ २७३, मैत्रीभावना का प्रभाव २७४, हृदय में मैत्री की स्थापना से अलभ्य लाभ २७४, अपने आप से सत्य को खोजो, किसी को शत्रु मत मानो २७५, प्राणिमात्र को अपना मित्र मानो, किसी को शत्रु मानो ही मत २७५, समस्त जीवों के लिए मैत्री के द्वार खुले रखो २७६, सभी प्राणी हमें व हम सर्वप्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखें २७७, मैत्रीभावना क्यों करें? २७७, मैत्रीभावना का उद्देश्य २७८, मैत्रीभावना का स्वरूप और उपाय २७८, मैत्री का फलितार्थ २७९, मैत्री का लक्षण और उद्देश्य २७९, विश्वमैत्री कि सिद्धि २८०, विश्वमैत्री साधक की उन्नत मनःस्थिति और उसका प्रभाव २८0, विश्वमैत्री के आदर्श तक पहुँचने का क्रम २८१, प्रमोदभावना का स्वरूप, व्यापकता और रहस्य २८१, यह प्रमोदभावना नहीं, प्रमोदभावना का नाटक है २८२, प्रमोदभावना से दूर व्यक्ति का मानस २८२, बाहर से प्रशंसा और अन्तर में दोषदृष्टि प्रमोदभावना नहीं २८३, गुणग्राहकता और चापलूसी में महान् अन्तर है २८३, जो जिसके विशिष्ट गुणों का चिन्तन करता है, वह एक दिन वैसा बन पाता है २८३, गुणग्राही व्यक्ति का हृदय : लोहचुम्बक के समान २८४, गुगानुरागी नहीं है तो सब जप, तप आदि निरर्थक हैं २८४, गुणान्वेषी दृष्टि विकसित होने पर अनेक आध्यात्मिक लाभ २८४, प्रमोदभावना में सर्वाधिक बाधक : दोषदृष्टि २८५, प्रमोदभावना के अधिकारी की अर्हताएँ २८५, करुणा मैत्रीभावना का ही विशिष्ट सक्रिय रूप है २८६, करुणाभावना का लक्षण २८६, मानवता के नाते भी करुणापूर्ण हृदय होना अनिवार्य २८६, करुणा आत्मा का स्वाभाविक गुण तथा धर्मवृक्ष की जड़ है २८७, ये सब करुणाभावना के ही अंग हैं २८७, करुणा की होली : हृदयहीनता और क्रूरतापूर्ण तर्क २८८, दुःखार्तों पर करुणा करने से व्यक्ति कर्मफलभोग में बाधक नहीं होता २८८, करुणाभावना के साधक को अनायास ही पुण्य का लाभ २८८, करुणापूर्ण हृदय भय और प्रलोभनों से विचलित नहीं होता २८९, सच्ची विश्वव्यापी करुणा से सामाजिक और आध्यात्मिक लाभ.२८९, माध्यस्थ्यभावना क्यों और क्या है ? २९०, ऐसे दुष्टों, दुर्जनों के प्रति माध्यस्थ्यभावना की कर्मबन्ध से बचने का मार्ग २९०, माध्यस्थ्यभाव का फलितार्थ मौनभाव है २९१, उनके प्रति न तो राग रखे, न द्वेष; मौन या उपेक्षाभाव ही हितावह २९१, माध्यस्थ्यभाव की सार्थकता २९२, दूसरों को गलत मान बैठना भी माध्यस्थ्यभावना में बाधक २९२, माध्यस्थ्यभावना का विवेकसूत्र : घृणा पाप से हो, पापी से नहीं २९३, माध्यस्थ्य गुणी-साधक सुधारने में विफल होने पर क्षुब्ध न हो २९३, प्रत्येक प्राणी स्वकृत कर्मानुसार सुनने को तैयार न हो तो द्वेषभाव न लाए २९४, माध्यस्थ्य गुण की परीक्षा २९४| (१६) आत्म-मैत्री : कर्मों से मुक्ति का ठोस कारण
पृष्ट २९५ से ३१४ तक अपने सुखों और दुःखों के कर्तृत्व और विकर्तृत्व के लिए स्वयं जिम्मेदार २९५. व्यवहार में मैत्री की छह कसौटियाँ २९५, ऐसी व्यावहारिक मैत्री प्रायः विश्वसनीय और चिरस्थायी नहीं २९६, व्यावहारिक जगत् में मैत्री और वैर के लिए दूसरा चाहिए २९६, व्यावहारिक जगत् में वैर-विरोध के मुख्यतया छह कारण २९६, अपराध के प्रतिशोध से वैर-परम्परा बढ़ती है २९८, वैरभाव के उद्गम स्थान : कषाय और
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