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* मोक्ष की अवश्यम्भाविता का मूल : केवलज्ञान : क्या और कैसे-कैसे? * २४५ *
समुद्घात करने की क्या आवश्यकता? इसके समाधान में वहाँ कहा गया है कि केवली अभी पूर्ण रूप से कृतकृत्य, आठों ही प्रकार के कर्मों से रहित, सिद्ध-बुद्ध-मुक्त नहीं हुए, उनके भी चार अघातिकर्म (वेदनीय, आयु, नाम और गोत्रकर्म) शेष हैं, जोकि भवोपग्राही कर्म हैं। अतः केवली के ये चार अघातिकर्म अभी क्षीण नहीं हुए, क्योंकि उनका पूर्णतः वेदन (भोगना) नहीं हुआ। कहा भी है"नाभुक्तं क्षीयते कर्मः।" सर्वकर्मों का नियमतः क्षय तो तभी होता है, जब उनका प्रदेशों से और विपाक से वेदन कर (भोग) लिया जाये। अर्थात् उनका फल भोगकर निर्जरा कर दी जाये। 'स्थानांगसूत्र' में बताया गया है कि प्रथमसमय केवली चार घातिकर्मांशों का क्षय कर देते हैं तथा चार अघातिकर्मांशों का वेदन करते (भोगते) हैं। अतः सामान्य केवलियों के चार अघातिकर्मों का क्षय करना बाकी है, जबकि सिद्ध केवलियों ने आठों कर्म भोगकर क्षय कर दिये हैं।'
सामान्य केवलियों के लिए यह नियम है कि उनके द्वारा (अवशिष्ट) चारों (सभी) (अघाती) कर्म प्रदेशों से भोगे जाते हैं, विपाक से भोगे जाने की भजना है (नियमा नहीं)। चूँकि सामान्य केवलियों द्वारा पूर्वोक्त चारों अघातिकर्मों का वेदन नहीं हुआ, इसलिए उनकी निर्जरा नहीं हुई। अर्थात् वे कर्म आत्म-प्रदेशों से पृथक् नहीं हुए। इन चारों (अघाति) कर्मों में वेदनीयकर्म सर्वाधिक प्रदेशों वाला होता है, नाम और गोत्र भी अधिक प्रदेशों वाले होते हैं, परन्तु आयुष्यकर्म के बराबर नहीं। आयुष्यकर्म सबसे कम प्रदेशों वाला होता है। तीर्थंकर केवली हों या सामान्य केवली, जब शेष तीन कर्म, आयुष्यकर्म के बराबर न हों तो, वे उन विषम स्थिति और बन्ध वाले कर्मों को आयुकर्म के बराबर करते हैं, ऐसे केवली के केवली
१. (क) केवलिस्स चत्तारि कम्मंसा अक्खीणा अवेदिया अणिज्जिणा भवंति, तं जहा-वेयणिज्जे
जाव गोए। सव्व-वहुप्पएसे वेणिज्जे कम्मे भवति। सव्व-धोवेसे आउए कम्मे भवति॥ विसमं समं करेति वंधणेहिं ठितीहिं य। विसम-समीकरणयाए बंधणेहिं ठितीहिं य॥२२८॥ एवं खलु केवली समोहण्णति, एवं खलु समुग्घायं गच्छति। सव्वे वि केवली णो समोहण्णति, णो समुग्घायं गच्छंति॥ जस्साऽऽउएण तुल्लाई बंधणेहिं ठितीहिं य।
भवोवग्गह कम्माइं समुग्घायं से ण गच्छति॥२२९॥ (ख) से णं तत्थ सिद्धा भवंति-असरीरा जीवघणा दंसण-णाणोवउत्ता णिट्ठियट्ठा णीरया
णिरेयणा वितिमिरा विसुद्धा सासयमणागयद्धं कालं चिट्ठति। . . . . से जहा णामए वीयाणं अग्गिदड्ढाणं पुणरवि अंकरुप्पत्ति न हवइ; एवमेव सिद्धाणं वि कम्म वीएसु दड्ढेसु पुणवि जम्मुप्पत्ती न हवति। से तेणद्वेणं .. . .।
-प्रज्ञापनासूत्र, पद ३६, सू. २१७०, २१७६
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