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* विषय-सूची : तृतीय भाग * ३१५ *
दृष्टि से श्वासोच्छ्वास बल-प्राण की साधना ९५८, गहरी श्वास से लाभ, न लेने से हानि ९५८, प्राणायाम से गहो श्वास लेने का लाभ, महत्त्व और उद्देश्य ९५९, गहरी साँस लेने से विभिन्न लाभ : पाश्चात्य डॉक्टरों की राय में ९६०, प्राण और वायु दोनों कितने सम्बद्ध, कितने भिन्न? ९६०, प्राण-तत्त्व : सूक्ष्मशरीर की नाड़ियों में घुला-मिला ९६१, अध्यात्म-क्षेत्रीय प्राणयाम का दूरगामी प्रभाव ९६१, आरोग्यविज्ञान-क्षेत्रीय प्राणायाम से अध्यात्म-क्षेत्रीय प्राणायाम बढ़कर ९६१. आध्यात्मिक प्राणायाम के दो रूप और उससे लाभ ९६१, आत्म-प्राण और ब्रह्म-प्राण का समन्वय : वैदिक दृष्टि से ९६२, ऐसा अन्तःऊर्जा-उत्पादक प्राणायाम प्राणबल-संवर-साधना में सहायक ९६२, आध्यात्मिक प्राणायाम से श्वासोच्छ्वास बल-प्राण-संवर में तीव्रता ९६३, अध्यात्म प्राणायाम की चार स्तर के रूप में चार स्थितियाँ ९६४, मिथ्यात्वादि पाँच आनवों के निरोधरूप संवर और श्वास-संवर में कितना साम्य, कितना अन्तर? ९६५, मनःसंवर और श्वास-संवर अन्योन्याश्रित ९६६, वैदिक मनीषियों की दृष्टि में : मन और प्राण (श्वास) के विलय, विजय एवं नियंत्रण का परस्पर सम्बन्ध ९६७, मनःसंवर के लिए श्वास (प्राण) संवर और श्वास-संवर के लिए मनःसंवर अनिवार्य ९६८, दोनों में भाषाभेद है, परिणामभेद या लक्ष्यभेद नहीं ९६८, द्विविध चित्त-शान्ति : श्वास से श्वास को नियंत्रित कीजिए ९६८, श्वास तीव्र होने के कतिपय कारण और उसका परिणाम ९६९, सुखी जीवों में श्वास-क्रिया बहुत ही देर में, दुःखी जीवों की बहुत जल्दी : शास्त्रीय प्रमाण ९७०, श्वास-संवर से कषाय-संवरादि तथा मनःसंवर भी होता है ९७१, श्वास कब तीव्र होता है, कब मन्द? : संक्षेप में निष्कर्ष ९७१, आसनविजय, निद्राविजय और आहारविजय ९७२, वास्तविक स्वस्थता, प्राणायाम से श्वास-नियंत्रण एवं कायोत्सर्ग : एक ही फलितार्थसूचक ९७२, एक पुद्गल निविष्ट-दृष्टि भी श्वास-संवर से सिद्ध हो सकती है ९७३, शान्त मुद्रा और आवेशग्रस्त मुद्रा के परिणाम में अन्तर ९७३। (१७) अध्यात्म-संवर का स्वरूप, प्रयोजन और उसकी साधना पृष्ठ ९७४ से १00८ तक
आत्मा अनन्त चतुष्टय-सम्पन्न होते हुए भी दरिद्र, अभावपीड़ित और पराधीन क्यों? ९७४, भौतिक सम्पदाओं की अपेक्षा आध्यात्मिक सम्पदाएँ अत्यधिक सुखकर तथा हितकर ९७६, आत्मा को बहिर्मुखी होने से बचाकर अन्तर्मुखी बनाओ, आत्म-प्रेक्षण करो ९७७, अध्यात्म-संवर से ही आत्म-दर्शन यथार्थरूप से हो सकता है ९७८, अध्यात्म-संवर का पहला पड़ाव : आत्म-दर्शन ९७८, बहिर्मुखी नहीं, अन्तर्मुखी होने से ही आत्मा अपने को देख सकती है ९७९, भ्रान्ति का कारण : आत्मानुभव के रस को छोड़कर विषयरसों का आस्वादन ९७९, अध्यात्म-शक्तियों का प्रयोग अध्यात्म-संवर में हो. तभी आत्मानभव ९८०. अध्यात्म-संवर से विमुख क्यों? ९८०, आत्मज्ञानरूपी समुद्र में समस्त ज्ञान-सरिताओं का समावेश सम्भव ९८१ आत्मज्ञान जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है ९८१, आत्मा को आत्मा से जानना अध्यात्म-संवर है ९८२, सच्चा आत्म-ज्ञान या आत्म-दर्शन : कब होता है, कब नहीं? ९८२, अध्यात्म-संवर : आत्म-भावों से आत्मा को भावित करने से ९८३, वही अध्यात्म-संवर का साधक, जो 'स्व' से अन्यत्र दृष्टि नहीं रखता, न रमता है ९८४, सर्वत्र सभी अंगों में आत्मा को देखना : आत्म-दर्शन ९८४, एकमात्र शुद्ध आत्मा को अनना-देखना : आत्म-दर्शन ९८५. आत्मा के साथ एकत्व की प्रतीति ही सच्चा आत्म-दर्शन ९८५. भेदविज्ञाता आत्मदर्शी अर्हन्त्रक श्रावक ज्ञाता-द्रष्टा बना रहा है ९८६, ज्ञानचेतना में सढ रहने वाले अध्यात्म-संवर-साधक की वृत्ति या दृष्टि ९८६, सुकरात को आत्मा की अमरता पर दृढ़ विश्वास : आत्म-दर्शन का प्रतीक ९८६, एकमात्र सच्चिदानन्द-स्वरूप आत्मा हूँ, अन्य नहीं : यही आत्म-दर्शन की सिद्धि ९८७, आत्म-बाह्यभाव मैं या मेरे नहीं, मैं अन्य हूँ : आत्म-द्रष्टा का चिन्तन ९८७. एकमात्र आत्मा का सम्प्रेक्षण : अध्यात्म-संवर का उत्कृप्ट रूप ९८८, एकमात्र आत्मा की शरण में चले जाने पर कष्ट का आभास नहीं होता ९८९, आत्म-समर्पित साधक बाहुबलि मुनि की अध्यात्म-संवर साधना ९८९, आत्मा में तल्लीन साधक पर सर्प-विष का प्रभाव नहीं ९९०, समाधिमरण की आराधना : अध्यात्म-संवर की प्रक्रिया . ९९०, अध्यात्म-संवर का स्वरूप : प्रतिसंलीनता-आत्म-निष्ठा ९९१, आत्मा ही संवर आदि है : अध्यात्म-संवर का एक विशिष्ट रूप ९९१, अर्हत्-सम्प्रेक्षण ही शुद्ध आत्म-सम्प्रेक्षण है : अध्यात्म-संवर के सन्दर्भ में ९९२, अर्हत-सम्प्रेक्षण से स्वभाव-रमणतारूप संवर, परभाव-रमणता-निरोध ९९२, भगवान महावीर विशुद्ध आत्मज्ञानी-साधक थे, प्रसिद्धि आदि के नहीं ९९३, अध्यात्म-संवर की साधना के साथ प्रसिद्धि, सिद्धि आदि का निषेध ९९४, आत्मवान् और अनात्मवान् की पहचान ९९४, आत्मा और
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