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* ३३८ * कर्मविज्ञान: परिशिष्ट *
चुकता है, कैसे बँधता है ? ५३०, शुभ ऋणानुबन्ध की कुछ विशेषताएँ ५३१, व्यवहार से एक भव परि सुख का लाभ, परमार्थ से सिद्धिलाभ ५३१, शुभ ऋणानुबन्ध से व्यवहार की अपेक्षा परमार्थ में विशेष ५३२, अमुक व्यक्ति के प्रति ही अमुक का आकर्षण, शुभ ऋणानुबन्ध के कारण ५३२, एक ही भव में ! और अशुभ दोनों प्रकार के ऋणानुबन्ध का उदय ५३२, ऋणानुबन्ध निकाचित होने पर तीव्रता से कार्यानि होता है ५३३, ऋणानुबन्ध से मुक्ति : एक भव में दुष्कर ५३३, अधिक शुभ ऋणानुबन्धी भवों की संख्या लाभदायी, किन्तु अशुभ की संख्या पीड़ाकारी ५३४, भवों की संख्या अधिक हो तो बल और फल अधिक संख्या कम हो तो दोनों कम ५३४, प्रत्येक गति के जीव का तथा एक गति के जीव का अन्य गति जीव के साथ ऋणानुबन्ध के अनुसार सम्बन्ध ५३४, मनुष्य मनुष्य के बीच ऋणानुबन्ध का उदय ५३ मनुष्य का तिर्यंच साथ शुभ-अशुभ ऋणानुबन्ध का उदय ५३९, मनुष्य और देव के बीच परस ऋणानुबन्ध का उदय ५४४, तिर्यंच और देव के बीच भी ऋणानुबन्ध का उदय ५४९, ऋणानुबन्ध के उदय आने पर कर्मों की निर्जरा ५५१, ऋणानुबन्ध का नियम अटल और अबाधित ५५२, ऋणानुबन्ध के निय को जानने से बद्ध कर्मों का निरोध और क्षय आसान ५५३, उदाहरणों पर मनन करके स्थिर बुद्धिं ५५३, ऋणानुबन्ध के नियमों को जानने से लाभ ५५३, ऋणानुबन्ध के अशुभ उदय को अप्रभावी, शान्त अ क्षीण करने के उपाय ५५५, विशेष संकट उपस्थित होने पर शान्ति का उपाय ५५५-५५६ ।
(२१) रागबन्ध और द्वेषबन्ध के विविध पैंतरे
पृष्ठ५५७ से ५९२ त
और द्वेष : दो प्रकार की विद्युत् के समान ५५७, राग और द्वेष सम्बन्ध जोड़ता है, वही बन्ध है ५५८, राग-द्वेष : दुःखवर्द्धक, चारित्रनाशक, सद्गुण-शत्रु ५५८, राग-द्वेष और कर्मबन्ध : एक ही सि के दो पासे ५५९, विषयों के निमित्त से राग-द्वेष, उनके कारण कर्मबन्ध और फिर दुःख ५६०, राग-द्वे की तीव्रता : भव-परम्परा का कारण ५६०, राग-द्वेष जितना उत्कट, उतना ही दुःखदायी ५६५, कषायों दे समान राग-द्वेष की भी छह डिग्रियाँ ५६५, राग हो या द्वेष : अन्त में दुःखदायी ही हैं ५६६, राग-द्वेषयुक्त कोई भी प्रवृत्ति परिणाम में दुःखदायी होगी ५६६, द्वेष भी विभिन्न रूपों में प्रकट होता है, परिणाम दुःखदायी है ५६६, राग और द्वेष, दोनों की परिणति दुःखदायी : क्यों और कैसे ? ५६७, जहाँ राग, वह द्वेष और जहाँ द्वेष, वहाँ राग प्रायः होता ही है ५६८, राग और द्वेष के विविध रूपान्तर और विकल्प ५६८, राग और द्वेष की चतुर्भंगी ५६९, प्रथम विकल्प : राग से राग की वृद्धि ५६९, द्वितीय विकल्प : राग का द्वेष में रूपान्तर ५७०, तीसरा विकल्प : द्वेष का राग में रूपान्तरण ५७२, चतुर्थ विकल्प : अल्प-द्वेष से अधिक द्वेष ५७३, द्वेष की मात्रा में वृद्धि के अन्य कारण भी ५७४, संसार में राग की अधिकता या द्वेष की ? ५७५, राग ज्यादा खतरनाक है या द्वेष ? ५७९, राग की अपेक्षा द्वेष शान्त न किया जाए तो अकल्प्य हानि ५७९, राग-द्वेष से समस्त आत्म-साधनाओं की क्षति ५८०, राग-द्वेष से तपस्या निरर्थक हो जाती है ५८०, ज्ञानादि पंचाचार की साधना तीव्र राग-द्वेष सहित है तो निरर्थक है ५८१, राग-द्वेष से सर्वाधिक हानियों के विविध पहलू ५८२, ग्रन्थिभेद से प्राप्त सम्यक्त्व - रत्न को राग-द्वेष पुनः बढ़ाते ही खो देता है ५८३, राग-द्वेष आत्मा के स्वभाव नहीं, विभाव हैं : क्यों और कैसे ? ५८३, राग-द्वेष : सम्यक्त्वगुणघातक, आत्म- गुणघातक, स्व-विकासघातक ५८३, राग-द्वेष करने से कर्ता का ही नुकसान, सामने वाले का नहीं ५८३, राग-द्वेष-प्रेरित व्यक्ति समभावी वीतरागों का कुछ भी नुकसान न कर सके ५८४, मंदरागी के लिए कौन-सा पथ उपयोगी ? ५८४, राग कहाँ तक व्यक्त, अव्यक्त या क्षीण ? ५८५, रागभाव बन्ध का कारण और मोक्ष का प्रतिबन्धक ५८५, नीचे की भूमिका में अप्रशस्त राग-द्वेष को छोड़कर प्रशस्त राग-द्वेष अपनाएँ ५८६, प्रशस्त राग अपनाने से पहले ५८९, प्रशस्त राग मन्द बुद्धि श्रद्धालुओं के लिए कैसे प्रादुर्भूत हो ? ५९० प्राथमिक भूमिका में राग या रागी का त्याग त्यागी या त्याग का आश्रय लेने से होता है ५९०, प्रशस्त द्वेष : स्वरूप और अध्यवसाय ५९१ प्रशस्त या अप्रशस्त राग-द्वेष व्यक्ति के शुभाशुभ अध्यवसायों पर निर्भर ५९१ ५९२ ।
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