________________
* ३४२ * कर्मविज्ञान : परिशिष्ट *
१२०, भाषासमिति : संवर और निर्जरा दोनों की कारण १२१, भाषासमिति : मौनरूप या व्यक्त भाषारूप? १२१, भाषासमिति का दोहरा कार्य १२२, भाषा : उत्थान की भी कारण, पतन की भी १२३, भाषासमिति और असमिति में अन्तर १२३, भाषासमिति : विभिन्न अर्थों में १२४, भाषासमिति की शुद्धि के लिए सुझाव १२४, वाक्य-शुद्धि कैसे-कैसे हो? १२५, भाषासमिति के अतिचार १२५, एषणासमिति : स्वरूप, उद्देश्य और तात्पर्य १२६, एषणासमिति का तीन एषणाओं द्वारा परिशोधन १२७, एषणासमिति के विवेकपूर्वक पालन से संवर और निर्जरा १२७, साधुवर्ग को आहार लेने और छोड़ने का विधान १२८, एषणासमिति के अतिचार १२९, आदान-निक्षेप-समिति : स्वरूप और विधि १२९, आदान-निक्षेप-समिति के अतिचार १३०, पंचम परिष्ठापनासमिति : स्वरूप, विधि और शुद्धि १३१, परिष्ठापन-शुद्धि : धिवेक तथा अतिचार १३२, इन अष्ट-प्रवचन माताओं से संवर और निर्जरा कैसे? १३३, महाव्रती और अणुव्रती दोनों के लिए उपादेय, पालनीय १३३। (९) संवर और निर्जरा का स्रोत : श्रमणधर्म
पृष्ठ १३४ से १६५ तक शुद्ध धर्म ही इन सब दुःखों से मुक्ति का एकमात्र उपाय १३४, धर्म क्या है, क्या नहीं? १३७, क्षमादि दशविध धर्म कौन-कौन से? १३९, क्षमादि दशविध धर्म को उत्तम क्यों कहा गया? १३९, क्षमादि उत्तम धर्म श्रावकवर्ग और सम्यग्दृष्टिवर्ग के लिए भी हैं १३९, (१) उत्तम क्षमा : क्या, क्यों और कैसे ? १४०, क्षमा क्या है ? कैसे और कब हो सकती है? १४0, मिथ्यादृष्टि में अनन्तानुबन्धी क्रोध, सम्यग्दृष्टि आदि में क्यों नहीं? १४१, उत्तम क्षमा की सात कसौटियाँ १४१, क्षमा से अपार आत्मिक लाभ और क्रोध से अपार क्षति १४३, कायरता और क्षमा में बहुत अन्तर है १४४, उत्तम क्षमा : किसमें प्रगट हो सकती है, किसमें नहीं? १४४, श्रमणवर्ग को उत्तम क्षमा के लिए कैसे उद्बोधन करना चाहिए? १४५, वृद्ध पिता द्वारा युवक पुत्र से क्षमायाचना १४९, व्रतबद्ध क्षत्रिय गणाधिप चेटक की क्षमा १४९, (२) उत्तम मार्दव : क्या, क्यो
और कैसे ? १५0, धर्म की जन्म-भूमि : कोमल एवं मृदु मन १५०, मार्दव का स्वरूप १५०, मार्दव धर्म का अधिकारी कौन? १५०, जातिमद के कारण हरिकेशबल चाण्डाल-कुल में उत्पन्न हुए १५१, मार्दव धर्म से अनुपम लाभ १५१, मार्दव धर्म और मानकषाय : दोनों ही विरोधी १५१, क्रोध और मान दोनों ही पापजनक १५२, पर-पदार्थों के संयोग होने मात्र से अहंकार नहीं होता १५२, मार्दव धर्म : किस-किस भूमिका वाले में ? १५३, मार्दव धर्म-प्राप्ति के लिए विविध उपाय १५३, अनन्तानुबन्धी कषाय वाले में मार्दव धर्म नहीं १५४, मार्दव धर्म-प्राप्ति के लिए देहादि के प्रति पर-बुद्धि, मानकषायादि के प्रति हेय बुद्धि आवश्यक १५५, मानकषाय के प्रति उपादेय बुद्धि के कारण रावण आदि नरकगामी बने १५५, (३) उत्तम आर्जव: धर्म. स्वरूप और उपाय १५५. सरलता है सिद्धि का मार्ग १५५. आर्जव क्या है, क्या नहीं ? १५५, जहाँ माया कषाय नहीं, वहीं आर्जव धर्म है १५६, मायाचार से दुर्गति एवं जन्म-मरण की वृद्धि १५६, सरलता और वक्रता की चौभंगी १५७, सिद्धों में तथा एकेन्द्रियादि में मन-वचन-काया की एकरूपता क्या है ? १५८, विपरीत रूप में मन-वचन-काया की एकरूपता से आर्जव धर्म नहीं होता १५८, निश्चयदृष्टि से उत्तम १५९, वस्तुस्वरूप को अन्यथा मानना अनन्त कुटिलता है १५९, चार प्रकार की माया में किसमें कितनी? १५९, आर्जव धर्म की उपलब्धि के लिए क्या होना चाहिए, क्या नहीं ? १६0, (४) उत्तम शौच : धर्म १६0, तन-मन की पवित्रता का साधक १६०, लोभकषायवश सब प्रकार के पाप करने में तत्पर हो जाता है १६१, शौच धर्म कब प्रगट होता है? १६१, सामान्य पवित्रता शौच धर्म नहीं १६२, अन्य कई प्रकार के लोभ : एक चिन्तन १६२, शौच धर्म के साधक के लिए विचारणीय १६३, शौच धर्म की प्राप्ति के लिए उपाय १६४, स्वभाव से पवित्र आत्मा का आश्रय लेने पर ही शुचिता प्रगट होगी १६५। (१०) दशविध उत्तम धर्म
पृष्ठ १६६ से १७८ तक ___ उत्तम आत्म-धर्म सीमाओं में बँधा हुआ नहीं १६६. (५) उत्तम सत्य : स्वरूप तथा साधनामार्ग १६६, सत्य ही भगवान है १६६, सत्य केवल वाणी का विषय नहीं १६७, सत्य : संवर-निर्जरा की साधना के लिए अनुपम १६७, सत्य को प्रायः जैनाचार्यों ने वाणी तक ही सीमित रखा है १६७, सत्याणुव्रत के लक्षण १६८, सत्य को जीवन में उतारने के लिए चार स्थानों से बाँधा गया है १६८, निश्चयदृष्टि से सत्य धर्म का
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org