________________
कर्मविज्ञान : पंचम भाग
खण्ड
कुल पृष्ठ १ से ५९२ तक कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ निबन्ध २१
पृष्ठ १ से ५९२ तक (१) कर्मबन्धों की विविधता एवं विचित्रता
पृष्ठ ३ से ३२ तक संसार-महायंत्र को बाँधे रखते हैं बन्ध ३, विविध कर्मबन्ध : संसार-महायंत्र को बाँधे रखने वाले ३, प्रकृतिबन्ध आदि बन्ध के मूलभूत अंग ४, घाति-अघाति कर्मबन्धों का विवेचन ४, विविध बन्धों की जीवस्थान, गुणस्थान और मार्गणास्थान द्वारा प्ररूपणा ५, पुण्य-पाप कर्मबन्धों की प्ररूपणा अतीव प्रेरणाप्रद ५, चौदह मार्गणाओं के आश्रय से बन्ध की प्ररूपणा ६, उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी के मार्ग के बन्धों का विधान ६, पाँच भावों के आश्रय से आत्मिक विकास का दिशासूचन ६, कर्मबन्धों की चार दशाएँ : बन्धों को नापने का थर्मामीटर ७, बन्धों की जड़ों को उखाड़ने के लिए राग-द्वेषरूपी बीज न बोएँ ७, मिथ्यात्व के प्रबल बन्धन को तोड़ने के लिए ग्रन्थिभेद का उपाय ८, बन्धों को बदलने का आशास्पद सन्देश ८, बन्धों की विचित्रता और जाल से सावधान ९, चौबीस दण्डकवर्ती जीव कर्मजाल से आवेष्टित-परिवेष्टित १०, कर्मबन्धों के परस्पर सहभाव की प्ररूपणा १0, आठ कर्मों के बन्धस्थान और भूयस्कारादि चार बन्ध १२, मूल कर्मप्रकृतियों के चार बन्धस्थान १२, मूल प्रकृतियों में भूयस्कारबन्ध : किसमें और कितने? १३, अल्पतरबन्ध : स्वरूप और प्रकार १४, अवस्थितबन्ध : स्वरूप और प्रकार १५, अवक्तव्यबन्ध : स्वरूप
और प्रकार १५, भूयस्कार आदि बन्धों के विषय में स्पष्टीकरण १५, उत्तर-प्रकृतियों के बन्धस्थान और भूयस्कारादि बन्ध १६, प्रत्येक कर्म की अपेक्षा से भूयस्कार आदि बन्ध-प्ररूपणा : एक स्पष्टीकरण १८, आठ कर्मों की उत्तर-प्रकृतियों के बन्धस्थान तथा भूयस्कारादि बन्ध का कोष्ठक २६, बन्ध के विविध मोर्चों से सावधान २६. पापकर्मबन्ध से कैसे बचे, कैसे प्रवृत्ति करे? २७, ऋणानुबन्ध : परस्परबन्ध को समझना भी आवश्यक २७, पुण्यकर्म भी उपादेय नहीं, इच्छनीय नहीं २९, कर्मबन्ध के विविध पहलू २९, भावबन्ध का कारण : परिणाम २९, आध्यात्मिक दृष्टि से बन्ध का नाम-तौल ३०, चारों ओर से होने वाले कर्मबन्धों से सावधान रहे ३१-३२। (२) ध्रुव-अधूवरूपा बन्ध-उदय-सत्ता-सम्बद्धा प्रकृतियाँ
पृष्ठ ३३ से ६० तक . . 'उदय और सत्ता बन्ध से सम्बद्ध : संसार बन्धमूलक ३३, ध्रुवबन्धिनी-अध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों का स्वरूप ३४, ध्रुवोदया-अध्रुवोदया प्रकृतियों का स्वरूप ३५, कर्मोदय के पाँच हेतु और उदय का नियम ३५, ध्रुव-अध्रुव सत्ता की प्रकृतियाँ, स्वरूप और कार्य ३५, ध्रुवबन्धिनी कर्मप्रकृतियाँ : कितनी और क्यों ? ३६, कर्म की मूल-प्रकृतियाँ और बन्धयोग्य उत्तर-प्रकृतियाँ ३६, सैंतालीस ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ ३६, ये सैंतालीस प्रकृतियाँ ध्रुवबन्धिनी : क्यों और कहाँ तक? ३७, जिस प्रकृति का जहाँ तक उदय, वहाँ तक उसका बन्ध ३८, अध्रुवबन्धिनी तिहत्तर प्रकृतियाँ : क्यों और कैसे? ३९, पाँच मूल कर्मों के अनुसार अध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ ४0, इन प्रकृतियों को अध्रुवबन्धिनी क्यों माना गया? ४0. तिहत्तर प्रकृतियों को अध्रुवबन्धिनी मानने के कारण ४१. गोत्र और वेदनीय कर्म अध्रुवबन्धी भी, ध्रुवबन्धी भी : कब और क्यों ? ४२, मोहनीयकर्म की ये प्रकृतियाँ कब तक अध्रुवबन्धिनी? ४२, आयुकर्म की चारों प्रकृतियाँ अध्रुवबन्धिनी हैं ४२, नामकर्म की प्रकृतियों में अध्रुवबन्धिनी की पहचान ४३, बन्ध और उदय प्रकृतियों की भंगों के माध्यम से विविध दशाएँ ४३, बन्ध और उदय प्रकृतियों में उक्त भंगों की प्ररूपणा ४४, 'गोम्मटसार' में सादि-अनादि, ध्रुव-अध्रुव बन्ध का निरूपण ४५, दो ही भंग क्यों नहीं, अधिक क्यों? : एक शंका-समाधान ४६, चारों भंगों का विशेष स्पष्टीकरण ४७, ध्रुवोदया प्रकृतियों में घटित होने वाले भंग ४८, ध्रुवोदयी
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org