Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 482
________________ * ३२८ * कर्मविज्ञान : परिशिष्ट * (६) सादि-अनादि ध्रुव-अध्रुव द्वार : अनुभागबन्ध के परिप्रेक्ष्य में ४६६, निम्नोक्त आठ प्रकृतियों के रसबन्ध-चतुष्टय में सादि-आदि की प्ररूपणा ४६६, वेदनीय और नामकर्म के रसबन्ध की दृष्टि से सादि-आदि प्ररूपणा ४६७, ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों के अनुभागबन्ध-चतुष्टय का विचार ४६८, (७) स्वामित्व द्वार : उत्कृष्ट-जघन्य अनुभागबन्ध के स्वामित्व की प्ररूपणा ४७१. जघन्य अनुभागबन्ध के स्वामी ४७१-४७२। (२४) स्थितिबन्ध : स्वरूप, कार्य एवं परिणाम __ पृष्ठ ४७३ से ५०५ तक न्यायप्रिय शासक : एक को दण्ड, दूसरे को पुरस्कार ४७३, स्थितिबन्ध के रूप में कर्मराज द्वारा भी दण्ड-पुरस्कार की कालसीमा का निर्धारण ४७४, अनुभागबन्ध के अनुसार ही प्रायः स्थितिबन्ध ४७४, स्थितिबन्ध : लक्षण, स्वरूप और कार्य ४७५, स्थितिबन्ध का कार्य और प्रकार ४७५, जैनकालमान का प्ररूपण : समय से लेकर सागरोपम काल तक ४७६, पल्योपम और सागरोपम-कालमान ४७७, स्थितिबन्ध का मुख्य कारण : कषाय ४७७, मूल कर्मों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति ४७८, आयुकर्म के सिवाय सात मूल प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति : सागरोपम-प्रमाण द्वारा ४७९, कर्मों की उत्तर-प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति ४७९, अबाधाकाल : कर्म के स्थितिबन्ध से लेकर उदय तक का काल तथा स्वरूप ४८१, अबाधाकाल का परिमाण ४८२, स्थिति के दो प्रकार : कर्मरूपता-अवस्थान-लक्षणा अनुभव-योग्य ४८३, अबाधाकाल : विभिन्न कर्मों का ४८३, आयुकर्म के सम्बन्ध में अबाधा स्थिति के अनुपातानुसार नहीं ४८४, आयुकर्म का अबाधाकाल अनिश्चित भी है ४८४, आयुकर्म के विभाग वाले अबाधाकाल का हिसाब ४८५, गति के अनुसार आयु का बन्ध त्रिभाग-प्रमाण ४८५, त्रिभाग से कुछ अधिक शेष रहने पर परभव का आयुष्यबन्ध नहीं ४८५, यह अबाधा अनुभूयमान भव-सम्बन्धी आयु में ही ४८६, निरुपक्रमी और सोपक्रमी आयु द्वारा परभाव का आयुबन्ध ४८६, उत्तर-कर्म-प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबन्ध ४८६, अठारह कर्म-प्रकृतियों की जघन्य स्थिति में ४८६, चार उत्तर-प्रकृतियों की जघन्य स्थिति ४८७, आयुकर्म की चार प्रकृतियों की जघन्य स्थिति ४८७, तीर्थंकर नाम आदि तीन प्रकृतियों की जघन्य स्थिति ४८७, वैक्रिय-षट्क की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति ४८७, एक सौ बीस बन्धयोग्य प्रकृतियों में पेंतीस की उत्कृष्ट-जघन्य स्थिति ४८८, शेष पिचासी प्रकृतियों की जघन्य स्थिति का नियम और प्रक्रिया ४८८, वर्ग के अनुसार उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति का नियम ४८९, कर्म-प्रकृति के अनुसार प्रत्येक वर्ग की जघन्य स्थिति ज्ञात करने का तरीका ४८९, ऐसा करने का कारण ४८९, कर्म-प्रकृत्यनुसार उपर्युक्त वर्गों की जघन्य स्थिति ४९०, एकेन्द्रिय आदि के योग्य प्रकृतियों का उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिबन्ध ४९०, पिचासी प्रकृतियों का उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिबन्ध ४९१, द्वीन्द्रिय आदि का उत्कृष्ट तथा जघन्य स्थितिबन्ध-प्रमाण ४९१, जघन्य अबाधाकाल का प्रमाण ४९२, उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के स्वामी ४९३, अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य ही तीर्थंकर प्रकृति का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है ४९३, आहारक शरीर और आहारक अंगोपांगों के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का स्वामी ४९४, देवायु के उत्कृष्ट स्थितिबन्धक प्रमत्त मुनि की दो अवस्थाएँ ४९४, शेष बन्धयोग्य १४६ प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के स्वामी ४९४, चारों गतियों के मिथ्यादृष्टि जीव किन प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के स्वामी ? ४९५, छह प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के स्वामी ४९६, पूर्वोक्त छह प्रकृतियों के विषय में विशेष विवरण ४९७, जघन्य स्थितिबन्ध के स्वामी ४९७, सत्रह प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्ध के स्वामी ४९८, पूर्वोक्त सत्रह प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबन्ध किस गुणस्थान तक? ४९८, आयुकर्म के जघन्य स्थितिबन्ध के स्वामी ४९८, उत्कृष्ट आदि चार भेदों के माध्यम से सादि, ध्रुव आदि स्थितिबन्ध का विचार ४९९, उत्तर-प्रकृतियों में अजघन्य आदि बन्धों में सादि-आदि भंगों का निरूपण ५00, गुणस्थानों में स्थितिबन्ध का विचार ५०१, एकेन्द्रियादि जीवों की अपेक्षा से स्थितिबन्ध का अल्प-बहुत्व ५०१, स्थितिबन्ध की दृष्टि से शुभ और अशुभ स्थिति की मीमांसा ५०२, कषायजन्य होते हुए भी अनुभागबन्ध और स्थितिबन्ध में महान् अन्तर ५०३, स्थितिबन्ध में कषाय के साथ योग का संयोग ५०४, योगस्थानों के कारण स्थितिस्थानों की उत्तरोत्तर वृद्धि ५०५. स्थितिस्थानों के कारण होते हैं, अगणित अध्यवसायस्थान, जिनसे स्थितिबंध में तारतम्य होता है ५०५। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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