Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 489
________________ * विषय-सूची : पंचम भाग * ३३५ * टन्दा era सकती है ३४२, गुणस्थान-क्रम से जीव की आन्तरिक शुद्धि-अशुद्धि की नाप-जोख ३४२, गुणस्थान का तात्पर्यार्थ एवं शास्त्रीय अर्थ ३४३, गुणस्थानों का यह क्रम क्यों? ३४३, गुणस्थानों की सीमा : एक-दूसरे से सम्बद्ध : चौदह भागों में विभक्त ३४४, चौदह गुणस्थान चौदह श्रेणियों में विभाजित ३४५, मन्द-तीव्र पुरुषार्थी जीवों द्वारा गुणस्थानों का अवरोह-आरोह ३४६, मोक्ष-प्रासाद पर पहुँचने के चौदह सोपान : चौदह गुणस्थान ३४७, गुणस्थानों को क्रमिक अवस्थाएँ : मोहकर्म की प्रबलता-निर्बलता पर आधारित ३४७, गुणस्थानों का आधार ३४८, चौदह गुणस्थानों में उत्तरोत्तर दर्शन-चारित्रशक्ति की विशुद्धि ३४९, दुःख से पूर्ण-मुक्ति के हेतु रत्नत्रयोपलब्धि के लिए चौदह सोपान ३५0, गुणस्थान के ओघ, संक्षेप, गुण, जीवस्थान और जीवसमास नाम भी ३५०, चौदह गुणस्थानों के नाम ३५१, प्रथम गुणस्थान : स्वरूप, कार्य, प्रभाव ३५२, प्रथम गुणस्थान के अधिकारी कौन-कौन? ३५३, मिथ्यात्व गुणस्थानवी जीव : तीन कोटि ३५३, मिथ्यात्व गुणस्थान में ही अभव्य, अपरिपक्व, तथाभव्य और परिपक्व तथाभव्य ३५३. परिपक्व तथाभव्यत्व की प्रक्रिया और उसका स्वरूप ३५४, परिपक्व तथाभव्य ओघदृष्टि से योगदृष्टि की ओर ३५५, मिथ्यादृष्टि होते हुए भी स्वल्पमात्र बोध-प्राप्ति ३५५. स्वल्पमात्र बोध के कारण श्रवण-सम्मुख और धर्म-सम्मुख होता है ३५५, दर्शनमोह की तीव्र एवं गाढ़ गाँठ : कितनी दुर्भेद्य, कैसे सुभेद्य? ३५६, ग्रन्थिभेद का कार्य कठिनतम : परन्तु असम्भव नहीं ३५७, मानसिक विकारों के युद्ध के लिए उद्यत तीन प्रकार के विकासगामी जीव ३५७, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में त्रिविध वृत्तियों का अनुभव ३५८, त्रिविध विकासगामियों के मनोभावों का रूपक द्वारा स्पष्टीकरण ३५८, तीन व्यापारी मित्रों के समान तीन करणों का स्वरूप ३५९, दर्शनमोहमुक्तिपूर्वक सम्यक्त्व-प्राप्ति के लिए त्रिकरण करना अनिवार्य ३६०, तीनों करणों का ग्रन्थिभेद करने में क्या-क्या कार्य एवं उपयोग हैं ? ३६१, चींटियों के रूपक द्वारा तीन करणों का स्पष्टीकरण ३६१, यथाप्रवृत्तिकरण का परिष्कृत रूप ३६२, गिरि-नदी-पाषाण-न्यायवत् आत्म-परिणामों की स्वल्प शुद्धि ३६२, यथाप्रवृत्तिकरण के दो प्रकार : सामान्य और विशिष्ट ३६३, अपूर्वकरण : स्वरूप और विशेषता ३६४. तीन करणों में अपूर्वकरण की दुर्लभता और महत्ता ३६५, अपूर्वकरण राग-द्वेष की तीव्रतम ग्रन्थिभेदन में सर्वाधिक उपयोगी ३६५, अपूर्वकरण में बलप्रयोग ही प्रधान क्यों? : एक चिन्तन ३६५, अनिवृत्तिकरण : कब, कैसा और कैसे-कैसे ? ३६६, अनिवृत्तिकरण की प्रक्रिया के बीच में अन्तरकरण : स्वरूप और कार्य ३६६, तीनों करणों के माध्यम से आध्यात्मिक विकास के प्रथम सोपान पर ३६७, चतुर्थ गुणस्थान की भूमिका में विपर्यासरहित सच्ची अध्यात्मदृष्टि ३६७, चतुर्थ गुणस्थान : अविरत सम्यग्दृष्टि-प्राप्ति का अवर्णनीय आनन्द ३६८, चतुर्थ गुणस्थान-प्राप्ति से आगे की भूमिका द्वारा स्वरूप-स्थिरता-प्राप्ति का विश्वास ३६९, पंचम देशविरति गुणस्थान से छठे सर्वविरति गुणस्थान-प्राप्ति की चेप्टा ३७०. उपशमश्रेणी का स्वरूप और कार्य ३७२, क्षपकश्रेणी का स्वरूप और कार्य ३७२, दोनों श्रेणियों में अन्तर ३७३. तेरहवें सयोगीकेवली गुणस्थान में आत्मा की सभी शक्तियों का पूर्ण विकास ३७४, चौदहवें आयोगीकेवली गुणस्थान का स्वरूप और कार्य ३७४, द्वितीय-तृतीय गुणस्थान का स्वरूप और विश्लेपण ३७५, तृतीय गुणस्थान का स्वरूप और कार्य ३७६, चौदह गुणस्थानों में क्रमिक आत्मिक उत्कर्ष का विहंगावलोकन ३७६, निष्कर्ष ३७८-३७९। (१५) विविध दर्शनों में आत्म-विकास की क्रमिक अवस्थाएँ। पृष्ठ ३८० से ३९४ तक ____ आत्मिक गुणों की शुद्धि की तरतमतानुसार कर्मबन्ध से उत्तरोत्तर मुक्ति ३८0, आत्मा का विकास-क्रम : कर्मक्षय-पुरुषार्थ का फल ३८0, आध्यात्मिक विकास-क्रम : संक्षेप में तीन अवस्थाओं में ३८१, प्रारम्भ के गुणस्थानत्रयवर्ती जीवों की बहिरात्म संज्ञा ३८२, अन्तरात्मभाव का प्रारम्भ और उसकी सर्वोत्कृष्ट अवस्था ३८२, परमात्मदशा : दो गुणस्थानों में ३८३, आध्यात्मिक विकास-क्रम का निष्कर्ष ३८४, चौदह गुणस्थानों में से किसमें कौन-सा ध्यान? ३८४, गुणस्थानों और ध्यानों के वर्णन से आगे बढ़ने की प्रेरणा ३८५. अन्य दर्शनों में आत्मिक विकास-क्रम का निरूपण ३८५. योगवेत्ता जैनाचार्यों की दृष्टि में तीन अवस्थाएँ ३८८. योगदर्शन की दृष्टि में चित्त की पाँच अवस्थाएँ ३८८. चित्त की पाँच अवस्थाओं और गुणस्थानों में कितना सादृश्य, कितना विसादृश्य? ३९०-३९४। (१६) गुणस्थानों में जीवस्थान आदि की प्ररूपणा पृष्ठ ३९५ से ४२0 तक गुणस्थान का उद्देश्य, स्वरूप और कार्य ३९५, गुणस्थान : विकास-क्रम की उपलब्धियों के सूचक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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