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* विषय-सूची : चतुर्थ भाग * ३२१ *
की चारों अवस्थाओं पर विचार १४७, पुण्यानुबन्धी पुण्य कथंचित् उपादेय : क्यों और कैसे? १४८, स्पष्ट रूप से अशुभ कर्मबन्ध व शुभ कर्मबन्ध १४८, पुण्यानुबन्धी पुण्य के कारणरूप धर्मक्रिया से पुण्य भी और निर्जरा भी १४९, चौदहवें गुणस्थान की प्राप्ति के पूर्व तक धर्मक्रिया उपादेय : क्यों और कैसे? १४९, स्पष्ट रूप से बाँधे जाने वाले पुण्य तथा पाप का बन्ध १५०, बद्ध रूप से हुए पाप और पुण्य का बन्ध १५१, स्पष्ट रूप से बँधा हुआ बन्ध बद्ध, निधत्त और निकाचित भी हो सकता है १५१, निधत्त रूप (बँधे हुए) शुभ-अशुभ कर्मबन्ध : एक विश्लेषण १५२, निकाचित रूप से बँधे हुए शुभाशुभ कर्मबन्ध का कार्य
और सुफल १५३, निकाचित रूप से बँधे हुए पुण्यकर्म की पहचान १५३, निकाचित बँधे हुए शुभ कर्मों का फल भोगते समय सावधान ! १५४, कर्मविज्ञान द्वारा साधक को सावधान करने के लिए बन्ध-चतुष्टयावस्था १५४। (११) कर्मबन्ध के विभिन्न प्रकार और स्वरूप
पृष्ठ १५५ से १७१ तक व्यक्ति किसी भी चीज को बाँधने में मन और काया से बाँधता है १५५, हाथ से उठाने की तरह भाव से उठाने से भी बन्ध होता है १५५, केवल वस्तु को सहज भाव से पकड़ने या स्पर्श करने से बन्ध नहीं होता १५६, दो प्रकार की क्रिया से दो प्रकार का बन्ध १५६, जीव के द्वारा पुद्गलों को छेड़े जाने से परस्पर बन्धद्वय होता है १५७. स्पन्दनादि क्रिया धर्मास्तिकाय के निमित्त से और भावरूप क्रिया कालद्रव्य के निमित्त से १५७, द्रव्यबन्ध और भावबन्ध का लक्षण १५७, जीव और पुद्गल का विशिष्ट संयोग-सम्बन्ध होता है, तादात्म्य-सम्बन्ध नहीं १५८, द्रव्यबन्ध और भावबन्ध भी दो-दो प्रकार का १५८, भावबन्ध कैसे? भाववन्ध के कारण द्रव्यबन्ध कैसे? १५९, सजीव-निर्जीव पर-वस्तुओं के प्रति रागादिभाव आते ही ज्ञान खण्डित हो जाता है १५९, द्रव्यबन्ध भावबन्ध का परिष्कृत लक्षण १६०, भावबन्ध की उत्पत्ति का कारण १६०, द्रव्यबन्ध और भावबन्ध के दो-दो प्रकार १६१, ज्ञान और अज्ञानी के देखने के दो ढंग : इसी पर से अबन्ध और बन्ध १६१, द्रव्यवन्ध की प्रक्रिया १६२, भावबन्ध की प्रक्रिया १६२, द्रव्यकर्मबन्ध और भावकर्मबन्ध का स्पष्टीकरण १६२, परमाणुओं का परस्पर रासायनिक मिश्रण होता है; जीव और कर्म का बन्ध वैसा नहीं १६२, राग और द्वेष पुद्गल की तरह स्निग्ध-रूक्ष होने से बन्ध होता है १६३, कर्म और आत्मा का तीन प्रकार का सम्बन्ध १६४, द्रव्यबन्ध और भावबन्ध में किसकी मुख्यता
और क्यों? १६५, बन्ध, उदय, उदीरणा; सत्तादि का कथन द्रव्यकर्मबन्ध की अपेक्षा से १६५, द्रव्यकर्म के बन्धादि पर से जीव के भावों का अनुमान १६६, दोनों प्रकार के बन्धों में भावबन्ध ही प्रधान : क्यों और कैसे? १६६, रागादि अध्यवसाय के अभाव में बन्ध नहीं, अध्यवसाय निषेध क्यों १६६, जीव और कर्म के सम्बन्ध मात्र से द्रव्यबन्ध नहीं, भाव अपेक्षित १६६, स्निग्ध-रूक्षवत् राग-द्वेष से ही बन्ध, अन्यथा नहीं १६७, भावबन्ध का कारण : रागात्मक अध्यवर्साय है, वस्तु नहीं १६७, भावबन्ध का कारण साम्परायिक बन्ध है, ईर्यापथिक नहीं १६७, स्वार्थजन्य फलाकांक्षा भी राग-द्वेष के समान भावबन्ध का प्रबल हेतु १६८, साम्परायिक सकषाय और ईर्यापथिक अकषायवत् सकाम-निष्काम कर्म १६८, इष्ट-प्राप्ति, अनिष्ट-निवृत्ति भी फलाकांक्षारूप भावबन्ध की हेतु १६९, कषायभाव अकषायभाव से क्रमशः साम्परायिक एवं ईर्यापथिक बन्ध : एक चिन्तन १६९: कषायभाव का व्यापक रूप : भावबन्ध का कारण १७०, राग-द्वेषात्मक भावबन्ध के भी दो प्रकार : पापबन्ध, पुण्यबन्ध १७०, कर्मबन्ध के दो प्रकार : द्रव्यबन्ध, भावबन्ध, -नोआगमन : द्रव्यबन्ध १७१, भावबन्ध के दो भेद : मूल-प्रकृतिबन्ध और उत्तर-प्रकृतिबन्ध १७१, विभिन्न पहलुओं से बन्ध के प्रकार १७१। (१२) कर्मबन्ध के अंगभूत चार रूप .
पृष्ठ १७२ से १८४ तक विभिन्न दवाइयों के स्वभाव-परिमाणादि स्वतः काम करते हैं, वैसे ही कर्मबन्ध के चार रूप १७२, कर्मग्रहण एवं बन्ध के साथ ही उसके परिमाण, स्वभाव, काल और फलदान का निर्णय १७२, कर्मबन्ध की पहली अवस्था : प्रदेशवन्ध १७३, कर्मबन्ध की दूसरी अवस्था : प्रकृतिबन्ध १७३, कर्मबन्ध की तीसरी अवस्था : रसबन्ध १७४, कर्मबन्ध की चौथी अवस्था : स्थितिबन्ध १७४, कर्मबन्ध के साथ ही साथ ये चार अवस्थाएँ स्वतः निष्पन्न होती हैं १७४, बन्ध के चार अंशों का संक्षेप में स्पष्टीकरण १७५, प्रकृति-प्रदेशबन्ध योगाश्रित, स्थिति-अनुभागबन्ध कषायाश्रित १७५, बन्ध के चार रूपों का आधार : योग और कषाय १७५,
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