Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 477
________________ * विषय-सूची : चतुर्थ भाग * ३२३ * लक्षण और उनके बन्ध के कारण २११, ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध के मुख्य कारण २१२, ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध के कारण : आगमों के अनुसार २१३, ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध के दुष्परिणाम २१३, ज्ञानावरणीय कर्म का स्वभाव : उपमा द्वारा निरूपण २१४, ज्ञानावरणीय कर्म : कुछ शंका-समाधान २१४, ज्ञानावरणीय कर्म के स्वभाव का निर्णय २१५, ज्ञानावरण का प्रभाव : पं. मुनि श्री समर्थमल जी महाराज पर २१५, माषतुष मुनि का उदाहरण : ज्ञानावरणीय कर्म का प्रभाव २१५, दर्शनावरणीय कर्म का लक्षण और कारण २१६, ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय कर्मबन्ध के विपाक के प्रकार २१६, कर्मग्रन्थ में प्रतिपादित दर्शनावरणीय कर्मबन्ध के हेतु २१७, वेदनीय कर्म का लक्षण और बन्ध के कारण २१७, असातावेदनीय कर्मबन्ध के कारण २१८, कर्मग्रन्थ में उक्त असातावेदनीय कर्मबन्ध के कारण २१८, जीवन में अशान्ति का कारण : असातावेदनीय बन्ध २१९, असातावेदनीय बन्ध का विपाक : आठ दुःखद संवेदनाओं के रूप में २१९, सातावेदनीय : लक्षण, स्वभाव और बन्धकारण २२०, ये सातावेदनीय कर्म से प्राप्त होते हैं २२०, सातावेदनीय कर्म के छह प्रमुख कारण २२१, कर्म-ग्रन्थानुसार आठ कारण २२१, भगवतीसूत्र-प्रतिपादित सातावेदनीय कर्म के कारण २२१, सातावेदनीय के प्रभाव से आठ प्रकार की सुखद संवेदना २२२, कर्मग्रन्थ-वर्णित कारणों का उदाहरण सहित प्रस्तुतीकरण २२२, वेदनीय कर्म के प्रभाव से जीव को कभी सुख तथा कभी दुःख की अनुभूति २२३, वेदनीय कर्मोदय से चारों गतियों के जीवन सुख-दुःख-मिश्रित २२४. वेदनीय कर्मबन्ध : एक ज्वलन्त प्रश्न और समाधान २२४, मोहनीय कर्म : लक्षण, स्वभाव और बन्धकारण २२५, मोहनीय कर्म : सभी कर्मों से प्रबल २२५, सर्व कर्मों में मोहकर्म की प्रधानता २२६, ज्ञानावरण कर्म से मोहनीय कर्म में अन्तर २२६, मोहनीय कर्म का दोहरा कार्य : ज्ञानादि शक्तियों को विकृत और कुण्ठित करने का २२७, मोहनीय कर्म का स्वभाव : मद्यपान से तुलना २२७, मोहनीय कर्म के दो रूप : दर्शनमोह और चारित्रमोह २२८, मोहनीय कर्मबन्ध के सामान्यतया छह कारण २२८, महामोहनीय कर्मबन्ध के तीस कारण २२९, आयुष्यकर्म : लक्षण, स्वभाव और बन्धकारण २३०, आयुष्यकर्म का स्वभाव २३०, आयुष्य कर्मबन्ध के सामान्यकारण २३२, अल्पायु और दीर्घायु-बन्ध के कारण २३२, जीव आयुष्यकर्म कब बाँधता है ? : एक धारणा २३३, मध्यम परिणामों में ही आयुष्य का बन्ध होता है २३३, आयुकर्म के दो प्रकार : अपवर्त्य और अनपवर्त्य २३४, अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय आयुष्य वाले कौन-कौन? २३४, अपवर्त्य और अनपवर्तनीय आयुष्य : लक्षण और स्पष्टीकरण २३४, अकाल में आयुभेद (मृत्यु) के सात कारण २३५, अपवर्तनीय-अनपवर्तनीय आयुबन्ध : परिणाम के वातावरण पर निर्भर २३५, अपवर्तनीय आयु के सम्बन्ध में एक प्रश्न और समाधान २३५, दीर्घकाल-मर्यादा वाले कर्म अल्पकाल में भोग लेने का विश्लेषण २३६, सत्ता की अपेक्षा आयु के दो प्रकार २३७, सामान्य रूप से आयु के दो प्रकार : भवायु और अद्धायु २३७, आयुबन्ध के छह प्रकार २३८, नामकर्म : स्वरूप, स्वभाव, बन्धकारण एवं प्रकार २३८, नामकर्म : व्यक्तित्व का निर्धारक २३९, नामकर्म के दो भेद और उनके बन्धकारण व विपाक-प्रकार २३९, शुभ-अशुभ नामकर्म के विपाक के चौदह-चौदह प्रकार २.१९, नामकर्म की देन २४0, गोत्रकर्म : स्वरूप, प्रभाव, स्वभाव और बन्धकारण २४0, गोत्रकर्मवन्ध का मूत कारण २४0, गोत्रकर्मबन्ध का मूल कारण : निरहंकारता-अहंकारता २४१, गोत्रकर्म का स्वभाव २४१, नीचकुल-उच्चकुल : आचरण-अनाचरण पर निर्भर २४२, उच्चगोत्र-नीचगोत्र कर्मबन्ध के हेतु २४२, उच्चगोत्र और नीचगोत्री को स्वकर्मफल २४२, उच्चगोत्र और नीचगोत्र के विविध अधिकारी २४३, उच्चगोत्रकर्म की निष्फलता अथवा सफलता? : समाधान २४३, गोत्रकर्म कभी निष्फल नहीं होता २४४, अन्तरायकर्म : स्वरूप, स्वभाव, बन्धकारण और प्रभाव २४४-२४६। (१६) उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-१ पृष्ठ २४७ से २७८ तक समुद्र से उठने वाली बड़ी-छोटी लहरों की तरह मूल-उत्तर-प्रकृतियाँ २४७, ज्ञानावरणीय कर्म की उत्तर-प्रकतियाँ : स्वरूप. प्रकार और भेद २४८. मतिज्ञान : स्वरूप, भेद और भेद-ग्रहण विधि २४९ मतिज्ञान के ३४0 भेदों का विवरण २४९, अवग्रह आदि पदों का अर्थ और विश्लेषण २५०, पाश्चात्य तर्कशास्त्र के अनुरूप मतिज्ञान का भी क्रम संगत है २५0, द्रव्य-पर्याय से अपृथक होने से वस्त का ज्ञान पर्याय होता है २५१, वस्तु का सामान्य बोध होने में दो क्रम : पटुक्रम और मन्दक्रम २५१, पूर्वोक्त अट्ठाईस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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