Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 479
________________ * विषय-सूची : चतुर्थ भाग * ३२५ * ३०८. सम्यक्त्व : उसके भेद तथा उनका लक्षण ३११, चारित्रमोहनीय : उत्तर-प्रकृतियाँ, स्वरूप और स्वभाव ३१२, चारित्र के लक्षण और कार्य ३१२, व्यवहारचारित्र निश्चयचारित्र का साधना ३१४, सम्यक्चारित्र और मिथ्यावारित्र में अन्तर ३१५, कषायमोहनीय : कषायवेदनीय क्या है? ३१६, कषाय का विनाशक रूप ३१७, कषाय के चार प्रकार : स्वरूप और स्वभाव ३१७, चारों मूल कषायों के प्रत्येक के चार-चार भेद : उनकी संज्ञा, स्वभाव और कार्य ३१८, अनन्तानुबन्धी कषाय : स्वरूप, स्वभाव, कार्य ३१९, अनन्तानुबन्धी का रहस्यार्थ ३२०, अनन्तानुबन्धी से संज्वलन तक का प्रतिफल ३२२, अनन्तानुबन्धी आदि चारों कषायों को पहचानने के लक्षण ३२३, अनन्तानुबन्धी चतुष्क : उपमान और फलपूर्वक लक्षण ३२४, अप्रत्याख्यानावरण-चतुष्क : उपमान और फलपूर्वक लक्षण ३२५, प्रत्याख्यानावरण-चतुष्क : उपमान और फलपूर्वक लक्षण ३२५, संज्वलन-कषाय-चतुष्क : उपमान और फलपूर्वक लक्षण ३२६, अनन्तानुबन्धी आदि कषायों की शुभाशुभ कर्मप्रकृतियों से होने वाला रसबन्ध ३२७, नोकषायवेदनीय : प्रकृतियाँ, लक्षण, स्वभाव और कार्य ३२८, चारित्रमोहनीय कर्म की कितनी प्रकृतियाँ सर्वघाती, कितनी देशघाती? ३२९, मोहनीय कर्मबन्ध के कारण ३३०, चारित्रमोहनीय कर्मबन्ध के कारण ३३१, कषायमोहनीय कर्मबन्ध के विषय में आवश्यक सूचना ३३२, नोकषायमोहनीय कर्मबन्ध के कारण ३३२, मोहनीय कर्म के अनुभाव (फलभोग) कैस-कैसे होते हैं ? ३३३, स्पष्ट रूप से मोहनीय कर्म की अट्ठाईस उत्तर-प्रकृतियों का फलभोग निर्देश ३३३, मौहनीय कर्म पर विजय कैसे प्राप्त हो? ३३४) (१९) उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-४ पृष्ठ ३३५ से ३५६ तक ____ आयुकर्म की उत्तर-प्रकृतियाँ : प्रकार, स्वभाव और बन्धकारण ३३५, आयुष्यकर्म का स्वभाव और कार्य ३३५, आयुष्यबन्ध के छह प्रकार ३३६, आयुकर्म के मुख्य चार भेद ३३७, नरकादि आयुवर्म-चतुष्टय के लक्षण ३३७, चारों प्रकार के आयुष्य कर्मबन्ध के हेतु ३३९, नरकायुष्य कर्मबन्ध के कारण ३३९. तिर्यंचायु कर्मबन्ध के कारण ३४0, मायाशल्य : कपटपूर्वक प्रायश्चित्त : तिर्यञ्चायु-बन्ध का कारण ३४१, गूढ माया के कारण तिर्यंचायु का बन्ध ३८२, मनुष्यायुकर्म का बन्ध ३४३, मनुष्यायुकर्म का बन्ध ३४३, देवायु-कर्मबन्ध के कारण ३४४, देवायु का बन्ध करने वाले जीव ३४५, चारों प्रकार के आयुकर्मों में से कौन, किसको बाँधता है ? ३४६, व्रतशीलरहित प्राणी चारों प्रकार की आयु को बाँधते हैं ३४६, नामकर्म के पृथक् अस्तित्व की सिद्धि ३४७, नामकर्म : लक्षण, उत्तर-प्रकृतियाँ, स्वरूप और कार्य ३४७, नामकर्म की दो मुख्य उत्तर-प्रकृतियाँ : शुभ नाम, अशुभ नाम ३४८, शुभ नामकर्मबन्ध के कारण ३४८, शुभ नामकर्म के अन्तर्गत तीर्थकर नामकर्मबन्ध के बीस कारण ३४९, प्रकारान्तर से तीर्थंकर नामकर्मवन्ध के सोलह कारण ३५0, अशुभ नामकर्म के बन्ध के कारण ३५१, अशुभ नामकर्मबन्ध के कारणों से चार बातों की प्रेरणा ३५१, शुभ नामकर्म की सैंतीस, प्रकृतियाँ ३५३, अशुभ नामकर्म की चौंतीस, प्रकृतियाँ ३५४. नामकर्म की उत्तर-प्रकृतियों की संख्या में अन्तर क्यों? ३५४, पिण्ड-प्रत्येक-त्रस-स्थावर-दशक प्रकृतियाँ मिलकर बयालीस ३५५, चौदह पिण्ड-प्रकृतियों के पैंसठ भेद ३५६, नामकर्म की तिरानवे और एक सौ तीन प्रकृतियाँ : कैसे-कैसे? ३५६। । (२०) उत्तर-प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण-५ पृष्ठ ३५७ से ३९९ तक नामकर्म की समस्त उत्तर-प्रकृतियों का लक्षण, स्वरूप और स्वभाव ३५८, दो प्रकार की विक्रिया : एकत्व और पृथक्त्व ३६२, पाँचों शरीर उत्तरोत्तर सूक्ष्म, सूक्ष्मतर क्यों? ३६४, आदि के तीन शरीर एक-दूसरे से असंख्यातगुणे तथा अन्तिम दो अनन्तगुणे ३६५, तैजस्, कार्माणशरीर : अप्रतिघाती ३६५, तैजस् और कार्माण : अनादि-सम्बन्धयुक्त शरीर ३६६, शरीरों का प्रयोजन : उपभोग ३६६, चार शरीर मोपभोग हैं, कार्माणशरीर निरुपभोग ३६७, कार्माणशरीर ही सब शरीरों की जड़ और निरुपभोग ३६७, एक जीव में एक साथ कितने शरीर सम्भव? ३६८, छह संहनन और उनके लक्षण ३७१, छह संस्थान और उनके लक्षण ३७३, नामकर्म की आठ प्रत्येक प्रकृतियों का स्वरूप ३७८, त्रसदशक की दस प्रकृतियाँ : स्वरूप और कार्य ३८0, पर्याप्त जीवों के दो भेद ३८२, छह पर्याप्तियाँ मानने का कारण ३८२, शरीर-पर्याप्ति और श्वासोच्छ्वास-पर्याप्ति अधिक क्यों? ३८३, कितनी पर्याप्तियाँ किसमें और कौन-सी? ३८३, स्थावरदशक की दस प्रकृतियाँ : स्वरूप और कार्य ३८४, गोत्रकर्म की उत्तर-प्रकृतियाँ : स्वरूप और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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