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* ३२० * कर्मविज्ञान : परिशिष्ट *
मिथ्यात्व के आधार ११३, विपरीत दर्शन का फलित : दो प्रकार का ११३, मिथ्यात्व के उत्पत्ति की दृष्टि से दो प्रकार : नैसर्गिक और परोपदेश-निमित्तक ११३, परोपदेश-निमित्तक के चार और तीन सौ तिरसठ भेद ११४, क्रियावाद आदि चारों को मिथ्यात्व क्यों कहा जाता है ? ११५, ये चारों अभिगृहीत मिथ्यात्व के अन्तर्गत क्यों? ११५, दृष्टि विपर्यास की अपेक्षा से मिथ्यात्व के पाँच प्रकार ११६, विपरीत मिथ्यात्व की अपेक्षा से मिथ्यात्व के दस भेद ११८, मिथ्यात्व के दस भेदों का विश्लेषण ११९, काल की अपेक्षा मिथ्यात्व के तीन प्रकार ११९। (८) कर्मबन्ध के मुख्य कारण : एक अनुचिन्तन ।
पृष्ठ १२० से १३३ तक ___ बन्धरूप रोग के कारणों को जानना आवश्यक : क्यों और कैसे ? १२०.. कर्मबन्ध को जानने मात्र से कर्मबन्ध से मुक्ति नहीं हो सकती १२१, आत्मा के साथ कर्मों का बन्ध कराने वाले कारपों का जानना अनिवार्य १२२, दुःखमय संसार जानकर बन्ध के कारणों पर विचार करना आवश्यक १२२. बन्ध और बन्ध के कारणों को जानने पर ही कर्मों को तोड़ना सुशक्य १२२, कर्मवन्ध के कारण क्या-क्या हो सकते हैं ? १२३. आस्रव और बन्ध के मिथ्यात्वादि पाँचों कारण समान हैं, फिर अन्तर क्यों? १२३, कर्मबन्ध के हेतुओं की तीन परम्पराएँ और उनमें परस्पर सामंजस्य १२४, कर्मबन्ध के पाँच कारणों के निर्देश के पीछे स्पष्ट आशय १२५, उत्तरोत्तर गुणस्थानों में कर्मबन्ध के हेतु समाप्त होते जाते हैं १२६, ये कर्मबन्ध के हेतु कैसे-कैसे बन जाते हैं ? १२६, पाँचों बन्ध हेतुओं का कार्य क्या है ? १२७. प्रथम बन्धकारण : मिथ्यात्व
और उसका कार्य १२७, मिथ्यात्व का दायरा बहुत व्यापक १२८, कर्मबन्ध का द्वितीय कारण : अविरति १२८. बारह प्रकार की अविरति १२९, मिथ्यात्व से विरत होने पर भी तदनुसार आचरण में बाधक : अविरति १२९. प्रमाद : कर्मबन्ध का तृतीय कारण १३0, कपाय : कर्मबन्ध का चतुर्थ कारण : स्वरूप १३१, चारों कषायों का कार्य और तीव्रता-मन्दता १३१, चारों कषायों के प्रत्येक के चार-चार भेद और स्वरूप १३१, तीव्र-मन्द कपाय का उदय ही सम्यक्त्व आदि में बाधक १३२, नौ नोकषाय : कषायों के उत्तेजक १३२, कर्मबन्ध का पंचम कारण : योग और उसका कार्य १३२, पूर्ववर्ती हो तो पश्चाद्वर्ती बन्धहेतु अवश्य रहता है १३३। (९) बन्ध के संक्षेप दृष्टि से दो कारण : योग और कषाय पृष्ठ १३४ से १४२ तक
कर्मबन्ध के पाँच कारणों का दो में समावेश १३४, बन्ध के चार अंगों के निर्माण में ये दो ही आधार १३४, योग के द्वारा कर्मों का आकर्षण, कषाय के द्वारा बन्ध १३५, कषाययुक्त सांसारिक जीव के योग द्वारा ग्रहण और आश्लेष द्वारा बन्ध १३५, संसारी जीव की प्रत्येक प्रवृत्ति कषाययुक्त होने से कर्मबन्धकारक १३६, जहाँ वैभाविक प्रवृत्ति होती है, वहाँ कर्मबन्ध अवश्य होता है १३६, योग का काम है बाहर से कुछ लाना, कषाय का काम है चिपकाकर रखना १३७, चेतना की दीवार कषाय से चिकनी होगी तो कर्मरज अवश्य चिपकेगी १३७, कर्मरूप ईंधन लाने का काम योग का, आग को भड़काने का काम है कषाय का १३७, भावबन्ध न हो तो द्रव्यबन्ध कुछ नहीं कर सकता १३८, आत्मारूपी दीवार पर कर्मरज को योगरूप वायु एवं कषायरूप गोंद चिपकाते हैं १३८, चारों प्रकार के कर्मबन्ध में दो का सद्भाव अनिवार्य १३९, चारों बन्ध-अवस्थाओं के दो घटक १४0, कर्म का सर्वांगीण बन्ध : योगों की चंचलता
और कषाय की तीव्रता-मन्दता पर निर्भर १४0, कर्मों का आकर्षण और श्लेष : योग एवं कषाय-आम्नवों द्वारा १४0, वर्णीजी की दृष्टि में योग और कपाय के बदले योग और उपयोग १४१-१४२। (१०) कर्मबन्ध की मुख्य चार दशाएँ
पृष्ठ १४३ से १५४ तक कर्मबन्ध की डिग्री के चार मुख्य मापक १४३, कर्मबन्ध की चार अवस्थाओं का चार व्यक्तियों की अपेक्षा से विचार १४३. चारों बन्ध-अवस्थाओं का वस्त्र के दृष्टान्त से विचार १४४. आत्मा के राग-द्वेषादियुक्त परिणामों की तरतमता से कर्मबन्ध में तरतमता १४५, शिथिलता और दृढ़ता से कर्मश्लेष होने के कारण १४५, सुइयों के ढेर के दृष्टान्त से कर्मबन्ध की चारों अवस्थाओं का विश्लेपण १४६, संक्षेप में कर्मबन्ध की दो प्रकार की अवस्था : निकाचित, अनिकाचित १४६, दोनों प्रकार के कर्म चारों अवस्थाओं के रूप में बँधते हैं १४७, अशुभ कर्मबन्ध की चारों अवस्थाओं पर विचार १४७, शुभ कर्मबन्ध
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