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कर्मविज्ञान: चतुर्थभाग
खण्ड ७
कुल पृष्ठ १ से ५०६ तक कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या
पृष्ठ १ से ५०६ तक.
निबन्ध २४
(१) कर्मबन्ध का अस्तित्व
पृष्ठ ३ से १६ तक सजीव-निर्जीव वस्तुओं का परस्पर बन्ध : प्रत्यक्ष गोचर ३. आत्मा के साथ कर्मों के बन्ध के विषय में शंकाशील मानव ४, संकटापन्न स्थिति में उनके द्वारा कर्मवन्ध का स्वीकार ४, आप्त सर्वज्ञ महापुरुषों द्वारा कर्मबन्ध का प्रत्यक्षीकरण ५, कर्मबन्ध के विषय में प्रत्यक्षदर्शी महापुरुषों के अनुभूत वचन ५, हठाग्रही
और नास्तिक भी परोक्ष बातों को अनुमान से मानने को बाध्य ७, अनुमान आदि प्रमाणों से भी कर्मबन्ध की सिद्धि ७, समस्त संसारी जीवों में कर्मवन्ध का अस्तित्व है ८, उपचार से जीव कर्मबन्ध का कर्ता माना जाता है ९, वर्तमान में आत्मा अकेला न होने से कर्मबन्धयुक्त मानना अनिवार्य १0, संसारी जीव के साथ कर्मबन्ध प्रवाहरूप से अनादि १०, संसारी जीव परतंत्र होने से कर्मबन्धन से बद्ध है ११, कर्म के अस्तित्व को सिद्ध करने वाले प्रमाण ही कर्मबन्ध के अस्तित्व के साधक ११, कर्मबन्ध के अस्तित्व को सिद्ध करने वाले चार प्रमुख कारण १२, प्रथम कारण : कर्मपुद्गल और जीव का पारस्परिक प्रभाव १२, द्वितीय कारण : जीव का राग-द्वेषादि युक्त परिणाम १३, तृतीय कारण : योगों की चंचलता १३, चतुर्थ कारण : प्राणियों की विभिन्नता एवं विविधता १३, अन्य दर्शनों में भी कर्मबन्ध के अस्तित्व का स्वीकार १४. कर्मबन्ध के अस्तित्व के सम्बन्ध में पाश्चात्य लेखकों के विचार १५, संसारी जीव : कर्मवन्ध का जीता-जागता परिचायक १६ (२) दुःख-परम्परा का मूल : कर्मबन्ध
पृष्ठ १७ से २५ तक संसार के सभी जीवों को दुःख : कर्म-संयोग के कारण १७, कर्मबन्ध को अनुभव से जाना जा सकता है १७, मकान के खरीददार को अचानक दुःख क्यों प्राप्त हुआ? १८, रूपवती धनिकपुत्री पर शारीरिक, मानसिक दुःख क्यों आ पड़ा? १८, दीनता, निर्धनता और असहायता के दुःख का मूल कारण : पूर्व कर्मबन्ध १९; वह करोड़पति से रोडपति क्यों बना? २0, कर्म-संयोग ही दुःख का कारण २२, पूर्वकृत अशुभ कर्मबन्ध ही तो कारण था ! २२, दुःख-परम्परा का मूल : कर्मबन्ध २३, प्रायः सभी आस्तिक दर्शनों ने बन्धन को दुःखरूप माना २४, कर्मों से मुक्ति ही सर्वदुःखों से मुक्ति है २५, वैषयिक सुख भी दुःखरूप कर्मबन्धक २५, शरीर से सम्बद्ध जन्मादि भी दुःखरूप २५। (३) कर्मबन्ध का विशद स्वरूप
पृष्ठ २६ से ३६ तक समस्त प्राणियों के लिए दुःखदायक-पीडाजनक २६, बाह्य बन्ध का रूप भी कितना वेदनाजनक है? २६, कर्मबन्ध सभी बाह्य बन्धनों से प्रबलतम है : क्यों? २७, कर्मबन्ध आत्मा को परतंत्र, अनाथ एवं विमूढ़ बना देता है २७, कर्मबन्ध आत्मा को पराधीन बनाकर नाना दुःखभागी बनाता है २८, किसको किसका बन्ध है ? २९. कर्मबन्ध के विविध लक्षण : कर्म के साथ संयोग अर्थ में २९, संयोग के विषय में भ्रान्ति और उसका निराकरण २९, आत्मा और कर्म का स्वभाव भिन्न-भिन्न, फिर भी इन दोनों का संयोग .३0, संयोग-शब्दजन्य भ्रान्ति के निवारणार्थ श्लेष-शब्द-प्रयोग ३०, दोनों का संश्लेष-सम्बन्ध होने पर भी स्व-स्वभाव को नहीं छोड़ते ३२, आत्मा और कर्मपुद्गल : बन्ध की अपेक्षा से अभिन्न, लक्षण की अपेक्षा से भिन्न ३२, श्लेषरूप बन्ध में शुद्ध की अपेक्षा बद्ध के द्रव्यादि-चतुष्टय में अन्तर ३३, सभी एक क्षेत्रावगाही वस्तुएँ बन्ध को प्राप्त नहीं होती ३३, बन्ध का परिष्कृत लक्षण ३४, पं. सुखलाल जी द्वारा बन्ध के लक्षण
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