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* ३०६ * कर्मविज्ञान: परिशिष्ट *
अव्रत ५७५, अविरति की मुख्य पाँच संतान : अहिंसा प्रथम संतान ५७६, अविरति की दूसरी संतान : मृषावाद ५७७, अविरति की तीसरी संतान : चोरी ५७७, अविरति की चौथी संतान : अब्रह्मचर्य ५७८, अविरति की पाँचवीं संतान परिग्रह ५७८, आनवाग्नि का तृतीय उत्पादक और सहायक प्रमाद ५७९, प्रमाद के अंगभूत संगी-साथी पाँच हैं ५८०, प्रमाद का प्रथम अंग : मद्य ५८०, प्रमाद का द्वितीय अंग : विषयासक्ति ५८०, प्रमाद का तृतीय अंग : कषाय ५८१, प्रमाद का चतुर्थ अंग : निद्रा ५८१, प्रमाद के पंचम अंग : विकथा' की विवेचन कथा ५८२, प्रमाद से हानि, अप्रमाद से लाभ ५८३, कषाय : आम्नवाग्नि का सबसे प्रबल सहायक एवं उत्पादक ५८३, चारों की सम्मिलित आम्रवाग्नि: कर्मपरमाणुरूप ईंधन ५८४, योग : चारों आनवाग्नियों को प्रज्वलित रखने वाला वायु ५८५ ।
(३) कर्म आने के पाँच आम्नवद्वार
पृष्ठ ५८६. से ६०५ तक
भवन के पाँच द्वार खुले रखने का परिणाम ५८६, सांसारिक जीवों द्वारा मिथ्यात्वादि पाँचों आम्रवद्वार खुले रखने का परिणाम ५८६, साधना -परायण व्यक्ति पाँचों आम्रवद्वारों को खोलने में सावधान ५८६, कर्मों के आकर्षण और संश्लेषण के लिए मुख्यतया दो द्वार ५८७, योग- आम्रव की चंचलता का दिग्दर्शन ५८७, चंचलता कौन पैदा करता है ? ५८७, योग-आम्रव का स्वरूप ५८८, योगों की चंचलता का प्रेरक है- अविरति आम्रव ५८८, अविरति आस्रव का स्वरूप और कार्य ५८८, मन की चंचलता के पीछे अविरति की ही प्रेरणा ५८९, वचन की चंचलता भी अविरति प्रेरित ५८९, काया में चंचलता एवं सक्रियता पैदा करने वाला ५९, बहिर्मुखी ऋषिगण और अन्तर्मुखी जनक राजा ५९०, बहिर्मुखी और अन्तर्मुखी वृत्ति वालों में अन्तर ५९१, अविरति की प्रबलता - मन्दता पर त्रियोग की अन्तर्मुखी - बहिर्मुखी प्रवृत्ति निर्भर ५९१, अन्तर्मुखी वृत्ति वाला व्यक्ति गीता की भाषा में स्थितप्रज्ञ ५९२, आत्म-भावों में स्थित साधक की निश्चलता और निःस्पृहता की झाँकी ५९२, स्वयं में अन्तर्लीन होने से ही चंचलता कम होगी ५९२, अन्तर् में आकांक्षाओं की घटा, बाहर से त्याग से चंचलता कम नहीं होती ५९३, आकांक्षा शान्त न होने के पीछे कारण है-मिथ्यात्व-आनव ५९३, मिथ्यात्व - आनव के कारण समस्त वस्तुओं को विपरीत रूप में जानता - मानता है ५९४, मिथ्यात्व के मुख्य दस प्रकार ५९४, मिथ्यात्वग्रस्त व्यक्ति सभी कार्य उलटे करता है ५९५, मिथ्यात्व-आनव के कारण ः मति भ्रान्ति और आकांक्षा में वृद्धि ५९५, प्रमाद आनव : स्वरूप और कार्य ५९६, चतुर्थ आनवद्वार : कषाय और उसका प्रभाव ५९७, चंचलता को वृद्धिंगत करने में कषाय सब आम्रवों में प्रबल ५९७, कषाय के विभिन्न रूप एवं स्तर ५९८ इन चारों भावास्रवों के बिना अकेला योग चंचलता पैदा नहीं कर सकता ५९८, योगों की चंचलता को रोकने के लिए पूर्वोक्त चारों आम्रवों से सावधान रहना आवश्यक ५९९, योगों की चंचलता को कम करने के लिए प्रतिपक्षी को अपनाना आवश्यक ५९९, पाँच मुख्य मुख्य आम्रव-संवर द्वारों के बीस-बीस आनव-संवर उपद्वार ६००, आम्रवों के बीस द्वार और संवरों के बीस कपाट ६०१, नगर- रक्षा की तरह आत्म-रक्षा के लिए आम्रवद्वारों को भलीभाँति बंद करो ६०१, भीतर प्रादुर्भूत होने वाले आम्रवों को बन्द करने का उपाय : संवरानुप्रेक्षा ६०२, आनव और बन्ध में अन्तर तथा दोनों की कार्य- भिन्नता ६०३, पुद्गल कर्मों के आगमन का अभिप्राय: ज्ञानावरणादि पर्याय की प्राप्ति ६०५
(४) योग-आनव : स्वरूप, प्रकार और कार्य
पृष्ठ ६०६ से ६३० तक
योग-आनव : बद्ध अवस्था से जीवन्मुक्त अवस्था तक ६०६, आम्रव में योग की और बन्ध में कषाय की प्रधानता ६०६, योग-आनव और बन्ध का अन्तर ६०७, योग को ही आम्रव क्यों कहा गया, शेष आम्रवों को क्यों नहीं ? ६०७, योग ही आस्रव कहा जाता है : क्यों और कैसे ? ६०८. मिथ्यात्व आदि चारों आस्रवों का योग में अन्तर्भाव ६०८, योग को ही आम्रव कहने का प्रमुख कारण ६०९, योग को ही प्रमुख आम्रवद्वार कहने का कारण ६०९, आत्मा की स्वीकार की स्थिति में बाह्य भावों से जोड़ने वाला : योग ६१०, योग की विशिष्ट प्रक्रियात्मक परिभाषाएँ और लक्षण ६१०, योग के दो रूप : भावयोग और द्रव्ययोग ६११, योग का वैज्ञानिक विश्लेषण ६११, कर्मजनित चैतन्य- परिस्पन्दन (कम्पन) ही योग-आनव का हेतु ६१२, कम्पनजनित कर्मों का उद्गम स्थान : कार्मणवर्गणा ६१३, कार्मणवर्गणा ही कर्मशरीर की निर्मात्री ६१३, कार्मणशरीर ही व्यक्ति के मन, बुद्धि, मस्तिष्क को प्रेरित करता है ६१४, आम्रव और योग
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