Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 461
________________ * विषय-सूची : तृतीय भाग * ३०७ * की किया-प्रक्रिया ६१४, आत्मा की क्रिया का कर्मपरमाणुओं से संयोग ही योग है ६१५, गति को भी योग नहीं कहा जा सकता ६१५, योग के शुभ-अशुभ रूप का आधार : शुभ-अशुभ भाव ६१६, त्रिविधयोग अकेले सुख-दुःख के कारण नहीं ६१६, आलम्बन-भेद से योग के तीन प्रकार : मनोयोग, वचनयोग, काययोग ६१७, मनोयोग के विभिन्न लक्षण ६१७, मनोयोग के चार भेद ६१७, मनोयोग के चार भेदों का स्वरूप ६१८, भावमन की अपेक्षा से योग के भेदों के लक्षण ६१८, द्रव्यमन की अपेक्षा से योग के भेदों के लक्षण ६१८, मनोयोग के चारों भेदों का वचन-निमित्तक लक्षण ६१९, मनोज्ञान और मनोयोग में अन्तर ६२०, मनोयोग के दो भेद : शुभ मनोयोग, अशुभ मनोयोग ६२०, मनोयोग के दो भेद : शुभ-अशुभ : स्वरूप और लक्षण ६२१, वचनयोग : स्वरूप और लक्षण ६२१, वचनयोग का स्पष्टार्थ तथा सामान्य अर्थ ६२१, वचनयोग के चार भेद : स्वरूप और लक्षण ६२२, चतुर्विध मनोयोग के समान चतुर्विध वचनयोग भी ६२३, वचनयोग के दो भेद : शुभ और अशुभ : स्वरूप और लक्षण ६२३, अमनस्क विकलेन्द्रिय जीवों में अनुभय-वचनयोग पाया जाता है : क्यों और कैसे? ६२३, उपशम और क्षपक जीवों में असत्य और उभय मनोयोग तथा वचनयोग सम्भव है ६२४, निष्कपाय जीवों तथा ध्यानलीन अपूर्वकरण गुणस्थानी में भी वचन-काययोग सम्भव ६२४, काययोग : स्वरूप और लक्षण ६२५, काययोग के सम्बन्ध में कुछ सैद्धान्तिक समाधान ६२६, काययोग के सात प्रकार ६२६, शुभ-अशुभ काययोग : स्वरूप ६२६, काययोग के सात भेद : क्यों और किस अपेक्षा से? ६२७, काययोग के भेद और स्वरूप ६२७, विक्रिया और वैक्रियशरीर ६२८, कायक्लेश काययोग कर्मानव नहीं, वह कर्मक्षय का हेतु है ६२८, काययोग ही एकमात्र योग : क्यों और कैसे? ६२९, अध्यवसाय-स्थान असंख्येय, कर्माम्रवरूप योग अनन्त क्यों? ६३०। (५) पुण्य और पाप : आम्रव के रूप में पृष्ठ ६३१ से ६५६ तक कर्मों का आवागमन : अयोग-अवस्था के पूर्व तक ६३१, शुभाशुभ योगों के आधार पर पुण्यासव-पापानव ६३१, पुण्य-पापानव का लक्षण और विश्लेषण ६३१, पुण्यासव के कारण ६३२, किस प्रकार के मन-वचन-काययोग से शुभाम्रव होता है ? ६३३, शुभ-अशुभ योग के हेतु ही पुण्य-पापासव के हेतु हैं ६३३, पुण्यासव के विविध हेतु ६३३, शुभ परिणाम पुण्य, अशुभ परिणाम पाप ६३३, पापासव के विविध हेतु रूप परिणाम ६३४, पाप विषकुम्भवत्, अपराधमय, पातक एवं हेय तथा अहितकर ६३४, पुण्य-पाप वस्तु या क्रिया के आधार पर ही नहीं, कर्ता के परिणाम के आधार पर भी ६३५, सुख या दुःख उपजाने मात्र से भी पुण्य-पाप का निर्णय नहीं होता ६३५, क्रिया की अशुभता के आधार पर पापासव का उपार्जन ६३६. अशुभ परिणामों तथा क्रियाओं के आधार पर पापानव-निर्देश ६३७, दानादि शुभ क्रियाओं तथा शुभ परिणामों के आधार पर पुण्यासव का उपार्जन ६३७, मानसिक-वाचिक-कायिक शुभ-अशुभ आसव के लक्षण ६३७, क्रिया के बाह्यस्वरूप और परिणाम (फल) को लेकर भी द्रव्य-भावपुण्य ६३८, जैनदर्शन में पुण-पापकर्म के शुभाशुभत्व का निर्णय ६३८, बौद्ध-आचारदर्शन में पुण्यकर्म का निरूपण ६३९, कर्मों की शुभाशुभता का आधार राग की प्रशस्तता-अप्रशस्तता भी है ६३९, कर्मों की शुभाशुभता के मापदण्ड मृथक्-पृथक् : क्यों और कैसे? ६४0, कतिपय पाश्चात्यदर्शनों में क्रिया की शुभाशुभता की मान्यता ६४0, जैन-कर्मविज्ञान में भी क्रिया के पीछे प्रकार, पद्धति, भावादि द्वारा शुभाशुभ कर्म की मान्यता ६४२, शुभ-अशुभ योगरूप. पुण्य-पापानव पुण्य-पापबन्ध के कारण : क्यों और कैसे ? ६४३, जैनदर्शन में योगों की शुभाशुभता के आधारभूत तथ्य ६४४, शुभ-अशुभ कार्य से सम्बन्धित अन्य बातें ६४५, जीवाधिकरण की एक सौ आठ अवस्थाएँ ६४५, भाव-अजीवाधिकरण के भेद-प्रभेद ६४६, पुण्य-पाप : आस्रव भी और बन्ध भी ६४७, शुभाशुभ आम्रव और बन्ध में सैद्धान्तिक दृष्टि से अन्तर ६४७, अन्तर्भूमि में पुण्य-पाप का देवासुर-संग्राम ६४९, इस देवासुर-संग्राम का प्रारम्भ और अन्त : कब और कैसे? ६४९, पुण्य और पाप दोनों में से किसकी प्रबलता कब तक? ६४९, आगे की भूमिका में उत्तरोत्तर पाप हारता है, पुण्य जीतता है ६५०, पाप पतन के मार्ग पर और पुण्य उत्थान के मार्ग पर ले जाता है ६५०, पुण्य की भ्रान्तिवश पापासव का संचय ६५0, पापकर्मों से जुटाये हुए सुख-साधनों से पण्यलाभ मिलना कठिन E५१. पण्य और पाप के अन्तर्द्वन्द्व में आसरीवत्ति की प्रबलता ६५१. पापरूप असुरपक्ष के तर्क-कुतर्क ६५१, पापश्रमण : पुण्य से दूर, पापानव के निकट ६५२, पापासव-परायण लोगों की वृत्ति-प्रवृत्तियाँ ६५२, पापानव-परायण : पुण्यफल की भ्रान्ति के शिकार ६५३, पापानव-परायण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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