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* ३१२ * कर्मविज्ञान : परिशिष्ट *
उद्देश्य ८२६, मन की मूलभूत तीन शक्तियों, तीन स्तरों तथा चतुर्विध क्रियावृत्तियों को समझो ८२७, मन के तीन स्तर : चेतन, अवचेतन, अतिचेतन ८२९, क्रियात्मक अन्तःकरण की चार वृत्तियाँ ८२९, मन को पूर्णतया एकाग्र करने हेतु क्रमशः पाँच अवस्थाएँ ८३०, मनःसंवर की साधना के लिए योग्य-अयोग्य अवस्था ८३0, मनःसंवर के विविध पहलू ८३१। (१३) मनःसंवर के विविध रूप, स्वरूप और परमार्थ
पृष्ठ ८३२ से ८५६ तक मनःसंवर क्या है, क्या नहीं? : एक विश्लेषण ८३२, क्या इन दोनों प्रक्रियाओं को मनोनिरोध कहेंगे? ८३२, मनोनिरोध की सही और गलत प्रक्रिया के निर्णयार्थ तीन अश्वारोहियों का रूपक ८३२, मनोनिरोधक के ये दोनों ही उपाय अहितकर एवं गलत ८३५, मनोनिरोध या मनःसंवर का सही उपाय ८३५, मनोनिरोध या मनःसंयम क्या नहीं है, क्या है ? ८३६, मनोवशीकरण के लिए ज्ञान का अंकुश ८३७, मन का विषयों से (शून्य) रहित हो जाना-मन का मर जाना है ८३७, मन की दो प्रकार की स्थितियाँ ८३८, संसारी अवस्था में स्थूल मन निष्क्रिय होने पर भी सूक्ष्म मन क्रिया करता रहता है ८३८, अमनस्क प्राणियों में भी भावमन के अस्तित्व के कारण कर्मानव ८३९, मन को उत्पन्न तथा उत्तेजित व संचालित करने वाले दो तत्त्व ८४0, मन का निरोध : मनोवृत्तियों का निरोध है ८४०, वृत्तियों के माध्यम से ही उलझनें तथा प्रवृत्तियाँ मन में संक्रान्त होती हैं ८४१, वृत्तियों से रिक्त मन ही शून्य या अनुत्पन्न मन है ८४१, मनोनिग्रह या मनोनिरोध का वास्तविक अर्थ ८४२, जैन-परम्परा में मनोनिरोध के लिए उपशम के बदले क्षय का मार्ग श्रेयस्कर ८४२, भगवद्गीता-सम्मत मनोनिग्रह भी मनोदमन नहीं, किन्तु अभ्यास द्वारा मनोविजय ८४२, बौद्ध-परम्परा में भी दमन की प्रक्रिया चित्त-संक्षेप हेतु एवं निषिद्ध ८४३, जैन-परम्परा में मनोनिग्रह का अर्थ : मन का उदात्तीकरण ८४३, मनःसंवर का परमार्थ : मन को राग-द्वेप से विमुक्ततटस्थ रखना ८४४, प्रत्येक स्थिति में मन को तटस्थ, उदासीन एवं समत्व में स्थिर रखना ही मनःसंवर है ८४४, विषयों में प्रवृत्त हो रहे मन को शुद्ध के चिन्तन में लगा देना मनःसंवर है ८४५, पंचेन्द्रिय-विषयों में प्रवृत्त होते हुए मन में औदासीन्य भाव लाना मनःसंवर है ८४५, आत्मा मन को, मन इन्द्रियों को प्रेरित न करे, तभी मनोवि: यरूप मनःसंवर ८४५, परिपूर्ण शुद्ध मनःसंवर का रूप ८४६, मनःसंवर उच्च साधक के लिए भी कठिन, यदि वह सतर्क नहीं है तो ८४७, मनःसंवर में मन की क्रमशः चार या पाँच अवस्थाओं से आगे बढ़ना होगा ८४७, मनःसंवर की सिद्धि के लिए जीवनभर अभ्यास और त्याग आवश्यक ८४९, लक्ष्य के प्रति एकाग्र वीर मनःसंवर का निष्ठावान साधक ८४९, मृत्युभय से मुक्त साधक ही परम मनःसंवर प्राप्त कर सकता है ८५0, दृढ़ इच्छा शक्तिपूर्वक अभ्यास करो, तभी मन अनुकूल होगा ८५१, प्रबल इच्छा-शक्ति के बिना मनोनिग्रह का संकल्प शिथिल हो जायेगा ८५२, मनःसंवर में कामेच्छा और भोगेच्छा दोनों प्रबल बाधक ८५२, मनःसंवर का साधक असफलता मिलने पर हताश न होकर प्रबल उत्साह के साथ पुनः जुट जाये ८५३, इच्छा-शक्ति की दुर्बलता के कतिपय कारण ८५३, आत्म-विश्वास की कमी भी दृढ़ इच्छा-शक्ति में बाधक ८५४, स्व-मन से ही मन को निगृहीत करना चाहिए ८५४, मन-संवर कठिन अवश्य है, असम्भव नहीं ८५५, मनःसंवर से विचलित व्यक्ति भी पुनः उसमें सुस्थिर हो सकता है ८५५. मनःसंवर-साधक के लिए स्वाध्याय, सदुपदेश अतीव सहायक ८५५-८५६। (१४) मनःसंवर की साधना के विविध पहलू
पृष्ठ ८५७ से ८९३ तक __ मनःसंवर की दुष्कर साधना भी सुकर हो सकती है ८५७, सुखभोग की स्पृहा को कैसे संस्कारित करें, कैसे मोड़ें ? ८५७, जैनदृष्टि से मनःसंवर-साधना की दो कक्षाएँ : देशसंयम और सर्वसंयम ८५८. विषय-सुखों को आत्मिक-सुखों में लगाने हेतु : गृहस्थ श्रावक के लिए चार शिक्षाव्रत ८५८, मानसिक सुखोपभोग के समय आत्म-सुख-प्राप्ति की शक्ति सुरक्षित रहे ८५९. अर्थ और काम का सेवन भी धर्म-मर्यादा में हो ८५९, मनोनिग्रह के लिए मन का उन्नयनीकरण ८५९, उन्नयनीकरण का सही अर्थ : आत्म-सुखों की ओर आकर्षण व प्रस्थान ८६०, उच्छृखल कामसुख-लालसा मनःसंवर में अत्यन्त बाधक ८६०, सांसारिक सुख-कामनाओं को परमात्म-भक्ति या मुक्ति की ओर मोड़ दो ८६१, धर्म-शुक्लध्यानमना साधक की इन बाह्य विषयों में रति-अरति नहीं ८६१, मनोनिग्रह में बाधक बातें ८६२, मनःसंवर मन की पवित्रता और शद्धि पर निर्भर ८६३. मन की शद्धि के लिए आहार-शद्धि आवश्यक ८६४. आहार-शुद्धि
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