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* २८६ * कर्मविज्ञान : परिशिष्ट *
नहीं कर सकते ४२५, जीव स्वतंत्र है या परतंत्र ? : सापेक्ष समाधान ४२५. आत्मा कर्म (क्रिया) करने में स्वतंत्र, फल भोगने में परतंत्र ४२६, कर्म का स्वभाव : परतंत्र बनाना, आत्मा का स्वभाव : स्वतंत्र होना ४२७, कर्म करने में जीव स्वतंत्र, फल भोगने में परतंत्र ४२७, प्रत्येक कर्म करने में जीव स्वतंत्र, किन्तु परिणाम अवश्य स्वीकारना होगा ४२८, कर्म करने की स्वतंत्रता का फलितार्थ ४२९, दृष्टान्त द्वारा कर्म करने में स्वतंत्रता, फलभोग में परतंत्रता का स्पष्टीकरण ४२९, कर्म : परतंत्रकर्ता कब होते हैं, कब नहीं? ४२९, कर्म करने की जितनी स्वतंत्रता, उतनी ही जिम्मेवारी में परतंत्रता ४३०, यह पूर्ण स्वतंत्रता नहीं, उसका मजाक है ४३०, कर्म करने के निर्णय में मनुष्य स्वतंत्र, परन्तु बाद में कर्म-परतंत्र ४३१। (५) क्या कर्म महाशक्तिरूप है ?
... पृष्ठ ४३२ से ४५३ तक ___कर्मराज का सर्वत्र सार्वभौप राज्य ४३२, कर्म ही विधाता, शास्ता, ब्रह्मा, धर्मराजं आदि है ४३२, कर्मरूपी विधाता का विधान अटल है ४३३, कर्म : शक्तिशाली शास्ता एवं अनुशास्ता ४३३, मुक्ति न होने तक कर्म छाया की तरह पिछलग्गू ४३४, फल भोगने तक कर्म-शक्ति पीछा नहीं छोड़ती ४३५, कर्मों की सर्वत्र अप्रतिहत गति ४३५. कर्म के नियम अटल हैं ४३६, कर्म के नियमों में कोई अपवाद नहीं ४३६, जड़ कर्म-पुद्गलों में भी असीम शक्ति ४३७, सूक्ष्म कर्म-परमाणु-पुंज में अनन्त प्रकार की परिणाम-प्रदर्शन शक्ति ४३७, कर्म-शक्ति : धनादि सभी शक्तियों से बढ़कर ४३८, प्रचण्ड कर्म-शक्ति के आगे बड़े-बड़े महारथी परास्त ४३९, कर्मरूपी महाशक्ति के प्रकोप की भयंकरता ४३९, कर्म शक्ति से प्रभावित जीवन ४४१, कर्म की गति अत्यन्त गहन ४४२, कर्म-शक्ति की विलक्षणता ४४२, कर्म-शक्ति का प्रकोप कितना भयंकर? ४४३, पूर्वकृत घोर कर्म के फलस्वरूप दशरथ का देहान्त ४४३. श्रीकृष्ण पर जन्म से लेकर मृत्यु तक कर्मों की काली छाया ४४३, ब्रह्मदत्त चक्रवती पर कर्म-शक्ति का प्रकोप ४४४, कर्म-शक्ति के कारण ही विभिन्न गतियों-योनियों में परिभ्रमण ४४५. कर्मरूपी सूत्रधार की विलक्षण शक्ति ४४६, कर्म और आत्मा : दोनों में प्रबल शक्तिमान कौन? ४४७, वस्तुतः आत्मा की शक्ति ही प्रबल ४४८, कर्म-शक्ति प्रबल होती है चेतन का संयोग पाकर ४४९, कर्म-शक्ति को परास्त किया जा सकता है ४५0. आत्मा की शक्ति कर्म की शक्ति से अधिक क्यों? ४५0, अपनी शक्तियों का भान होते ही आत्मा कर्म-शक्ति को पछाड़ सकता है ४५१, कर्म-शक्ति पर आत्म-शक्ति विजयी न हो तो साधना निरर्थक ४५२, कर्म-विजेता तीर्थंकरों ने कर्म-शक्ति पर विजय का सन्देश दिया ४५२, आत्म-विरोधी कर्म-महाशक्ति पर विजयी ही सच्चा विजेता ४५३॥ (६) कर्म : मूर्तरूप या अमूर्त आत्म-गुणरूप ?
पृष्ठ ४५४ से ४६२ तक _ 'कर्म' शब्द का रूप और स्वरूप : दुर्गम्य एवं गहन ४५४, कर्म को मूर्तरूप न मानने का क्या कारण? ४५४, गणधरवाद में कर्म के मूर्त-अमूर्त होने की चर्चा ४५५, सुख-दुःखादि अमूर्त का समवायिकारण, आत्मा निमित्तकारण : कर्म ४५६, मूर्त का लक्षण और उपादान ४५६, षद्रव्यों में पुद्गलास्तिकाय ही मूर्त है ४५६. कर्म अमूर्त आत्मा का गुण नहीं है ४५७, कर्म सूक्ष्म होते हुए भी मूर्त है ४५८, गणधरवाद में कर्म की मूर्तत्व-सिद्धि ४५८, अन्य जैन-दार्शनिक ग्रन्थों में कर्म की मूर्तत्व-सिद्धि ४५९, कर्म के मूर्त कार्यों को देखकर मूर्तत्व-सिद्धि ४६०, आप्तवचन से कर्म मूर्तरूप सिद्ध होता है ४६१, अपेक्षा से कर्म जड़-चेतन-उभय परिणामरूप भी है ४६२। (७) कर्म का प्रक्रियात्मक स्वरूप
पृष्ठ ४६३ से ४८४ तक कर्म द्वारा आत्मा को मलिन करने की प्रक्रिया जानना आवश्यक ४६३. ज्ञपरिज्ञा से कर्म को भलीभाँति जानकर ही कर्म काटने का पुरुषार्थ करना हितावह ४६४. मशीनमैन को मशीन की प्रक्रिया के
का कर्म-प्रक्रिया का ज्ञान आवश्यक ४६४, भौतिक-रासायनिक प्रक्रिया की तरह जैविक-रासायनिक प्रक्रिया के प्रति जागरूक होना जरूरी ४६४, भावकर्म और द्रव्यकर्म दोनों की सन्धि तोडने के लिए प्रक्रियात्मक रूप जानना आवश्यक ४६५, अमर्त्त के साथ मूर्त-कर्म का संयोग-सम्बन्ध कैसे? ४६५, दोनों के उपादान पृथक्-पृथक्, दोनों में संयोग-सम्बन्धकृत परिवर्तन ४६६, निमित्त की सीमा में दोनों एक-दूसरे से उपकृत एवं प्रभावित होते हैं ४६६, निश्चयदृष्टि से अमूर्त आत्मा, वर्तमान में मूर्तवत् बनी हुई
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