________________
* ३०२ * कर्मविज्ञान: परिशिष्ट
फलभोग भी अशुभ का प्रतीक ४६१, 'जैसा कर्म, वैसा ही फलभोग' में परिष्कार करना उचित ४६१. पूर्ववद्ध कर्मों का फल उसी रूप में भोगना आवश्यक नहीं ४६१, पुण्य-पाप के खेल में अकुशल खिलाड़ी की हार: एक रूपक ४६२, पुण्य और पाप के खेल में एक की हार और दूसरे की जीत : क्यों और कैसे ? ४६३, पुण्य-पाप के खेल में करारी हार दूसरा रूपक ४६४, तीन वणिक् - पुत्रों के समान पुण्य-पाप के खेल में जय, पराजय, अर्ध-पराजय ४६५-४६६ ।
(११) पुण्य और पाप के फल : धर्मशास्त्रों के आलोक में
पृष्ठ ४६७ से ४८९ तक
४६७,
.
धर्मशास्त्रों में वर्णित पुण्य-पाप फल का उद्देश्य ४६७, जैनागमों में प्रतिपादित पुण्य-पाप का फल चौर्यकर्मों का फल : मूकता और बोधि- दुर्लभता ४६८, सुविनीतता और अविनीतता का फल ४६८, पुण्य-पाप कर्मों से कलुपित मानवों को उनके कर्मों का सुफल दुष्फल ४६९, विविध शुद्ध शील- पालन रूप पुण्यकर्म के सुफल ४६९, पापकर्मों से धनोपार्जन का कुफल ४७० अकाममरण से मृत लोगों के लक्षण और उसका फल ४७१, सकाममरण से मृत पुण्यशाली लोगों के पुण्य का फल ४७२, कामभोगों से अनिवृत्ति और निवृत्ति का फल नरक-तिर्यंच तथा देव-मनुष्य गति ४७२, अधर्मिष्ट नरक में और धर्मिष्ठ देवलोक में उत्पन्न होता है ४७२, शरीरासक्त तथा विविध पापकर्मों में आसक्त व्यक्तियों को दुःखद नरक - प्राप्ति ४७३, पापकर्मों के भार से भारी जीव बनते हैं - नरकागारी ४७३, पापमयी परस्पर विरोधी दृष्टियों का फल : नरक एवं सर्वदुःख - अमुक्ति ४७३ कामभोगों में आसक्ति का फल असुरदेवों और रौद्र तिर्यंचों में उत्पत्ति ४७४, निदान से प्राप्त भोगों में आसक्ति का दुष्परिणाम : नरक-प्राप्ति ४७४, पापकर्मियों को नरक और आर्यधर्मियों को दिव्यगति ४७४, विपरीत दृष्टि वाले उभयभ्रष्ट साधकों का उभयलोक भ्रष्ट ४७५, चोर की मृत्युदण्ड : अशुभ कर्मों का परिणाम ४७५, तीर्थंकर नेमिनाथ का कथन प्राणिवध-जनित पापकर्म में श्रेयस्कर नहीं ४७५, पशुवध प्ररूपक वेद और यज्ञ: पापकर्मों से रक्षा नहीं कर सकते ४७५, वन्दना, स्तुति, अनुप्रेक्षा, प्रवचन - प्रभावना, वैयावृत्य आदि का सुफल ४७५. पापकर्म के प्रबल कारणभूत प्रमाद का दुष्फल ४७६, स्त्रियों में कामासक्ति का फल ४७६, गुरुकर्मा व्यक्तियों की करुण दशा का निरूपण ४७७, स्वयंकृत दुःखद पापकर्मों का कटुफल ४७७, शरीर-सुख तथा रोगोपचार के लिए नाना प्राणियों के वध का फल ४७७, दूसरों को जिस रूप में पीड़ित करता है, वह उसी रूप में पीड़ा भोगता है ४७८, मुनिधर्मी कामभोगासक्त होकर स्वयं को महादुःख सागर में धकेलता है ४७९, आधाकर्मी आहार सेवन का दुष्फल ४७९, सभी गतियों एवं योनियों में परिभ्रमण रूप फल अवश्यम्भावी ४७९, गुरु-साधर्मिक शुश्रूषा से उपार्जित पुण्य का फल ४७९, दोषों की आलोचनारूप पुण्योपार्जन का फल ४८०. पंचेन्द्रिय एवं मन के विषयों के प्रति राग-द्वेष का प्रतिफल ४८०, कामासक्ति का इहलौकिक-पारलौकिक दुष्फल ४८०, कान्दर्पी आदि पाप भावनाओं से अर्जित पापकर्म का फल ४८१, पौण्डरीक के अयोग्य : चार प्रकार के पुरुष और उनको प्राप्त होने वाला कटुफल ४८२, तीन स्थान: अधर्मपक्ष, धर्मपक्ष एवं मिश्रपक्ष ४८२. अधर्मपक्ष स्थान के अधिकारी तथा उनकी चर्या एवं प्रकार ४८२, अधर्मपक्षीय जनों के विषय में अनार्यों एवं आर्यों का अभिप्राय ४८३. अधर्मपक्षीय स्थान: क्या. कैसा ?: और उसके पापकर्मों का इहलौकिक-पारलौकिक फल ४८३. द्वितीय धर्मपक्षीय स्थान अधिकारी और उनके गुण ४८४, धर्मपक्षीय स्थान के अधिकारियों को उनके प्रशस्त पुण्यकर्मों का प्राप्त होने वाला फल ४८४, तृतीय मिश्रस्थान अधिकारी और उनके गुण ४८५, मिश्रस्थान : अधिकारी श्रमणोपासकों के गुण, चर्या, व्रत एवं पुण्यकर्म-प्रतिफल ४८५, पृथ्वीकायिक से लेकर वैमानिक देवों तक का आहार, उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि : कर्मों के कारण ४८६, समस्त संसारी प्राणियों को प्राप्त होने वाले जन्म- जरामरणादि रूप फल ४८६. पशुवध समर्थक माँसभोजी ब्राह्मणों को भोजन कराने के पापकर्म का फल ४८७, नरक-गमनरूप पापफल के चार कारण ४८८. बौद्ध भिक्षुओं द्वारा प्रतिपादित अपसिद्धान्तों का सारांश ४८८, बौद्धभिक्षु-निरूपित अपसिद्धान्तों का खण्डन ४८८-४८९ । (१२) कर्मों के विपाक : यहाँ भी और आगे भी
▾
• पृष्ठ ४९० से ५२४ तक सुखद-दुःखद फलों का मूल स्रोत : पुण्य-पाप कर्म ४९०, पापकर्मों का दुःखद फल अनेक रूपों में मिलता है ४९०, पुण्यकर्मों के उपार्जकों को उनका अनेकविध सुखद फल एवं आध्यात्मिक विकास भी प्राप्त होता है ४९१, दुःखविपाक और सुखविपाक के कथानायकों के जीवन में क्या विशेषताएँ और अन्तर
For Personal & Private Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org