Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 454
________________ * ३०० * कर्मविज्ञान : परिशिष्ट * (८) विविध कर्मफल : विभिन्न नियमों से बँधे हुए पृष्ठ ३७६ से ४११ तक द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावादि के नियमानुसार वनस्पतिजगत् में फलों की विविधता ३७६, कर्मजगत् में भी द्रव्य-क्षेत्रादि के नियमानुसार कर्मफल की विभिन्नता ३७६, विभिन्न नियमों के आधार पर विविध कर्मों के विचित्र फलों का निरूपण ३७७, कर्मफल का नियन्ता ईश्वर नहीं, स्वयं कर्मफल नियम ३७७, कर्मफल के नियमों को न जानने से हानि ३७८, कर्मविज्ञान नियमों की खोज पर आधारित है ३७८, अपने आप भी सत्य की खोज करो : द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के परिप्रेक्ष्य में ३७९, सत्य की खोज के लिए अनुयोगद्वार में उपक्रम और अनुयोग का आश्रय ३७९, कर्मविपाक के नियम भी द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की परिधि में ३८०, कर्मफल के नियमों के जानने और न जानने के परिणाम ३८0, कर्मफल का प्रथम नियम : द्रव्यदृष्टि से ३८१, कर्मफल स्वेच्छा से शीघ्र भोगने और अनिच्छा से बाद में भोगने में अन्तर ३८२, द्रव्यदृष्टि से, कर्मफल-नियम का विविध पहलुओं से विचार ३८२, एक नियम : सजातीय कर्मप्रकृति का सजातीय कर्मप्रकृति में संक्रमण हो सकता है ३८३, सोलह विशेषताओं से युक्त कर्म ही विपाक (फल-प्रदान) के योग्य ३८४. फल देने (विपाक) योग्य कर्म : स्वयं उदीर्ण, परेण उदीरित तथा उभयेन उदीर्यमाण ३८७, उदय को प्राप्त (उदीर्ण) होने के पाँच निमित्त ३८८, परनिमित्त से उदय को प्राप्त होने के दो निमित्त ३८९, पुद्गल और पुद्गल-परिणाम से उदय को प्राप्त कर्मविपाक ३८९, उदय को प्राप्त कर्म ही विपाक (फल-प्रदान) के योग्य होता है ३९०, विपाकविचय (कर्मफल का अनुप्रेक्षण) : धर्मध्यान का एक अंग ३९१, विपाकविचय का सुगम उपाय ३९१, कर्मविपाक को परिवर्तित करने या रोकने से लाभ ३९२, कर्मविपाक बदला जा सकता है ३९३, प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ने कर्मविपाक में परिवर्तन करके उसे रोक लिया ३९३, पूर्ववद्ध पाप-पुण्य कर्मों की स्थिति और अनुभाग में संक्रमण का नियम ३९४, कर्मों का फलभोग दो प्रकार से : तथाविपाक और अन्यथाविपाक के रूप में ३९५, कर्मफलवेदन एवम्भूत या अनेवम्भूत? ३९५, उद्वर्तनाकरण और अपवर्तनाकरण के द्वारा भी नियमानुसार कर्मविपाक बदला जा सकता है ३९६, चतुर्विध-संक्रमण के नियम भी कर्मफल के नियम हैं ३९७, कर्मों का उपशमन : फल-प्रदान करने में अमुक काल तक अक्षम : एक नियम ३९७. नियतविपाक और अनियतविपाक : एक चिन्तन ३९८, कर्मविपाक में उपादान की अपेक्षा निमित का महत्त्व अधिक ३९९, कर्मविपाक का द्रव्यगत नियम ४00, क्षेत्र के निमित्त से होने वाले कर्मविपाक के नियम ४00, एक क्षेत्र में कर्म का उदय, दूसरे क्षेत्र में कर्म का क्षय ४०१, कर्मविपाक का नियम काल से भी बँधा हुआ है ४०२, ज्ञानवृद्धि करने के निमित्त : दस नक्षत्र तथा अन्य ग्रहादि भी ४०३, प्रत्येक चर्या नियत काल में करने-न करने से लाभ-हानि ४०३. आत्म-सम्प्रेक्षण का समय : कालकत नियम से बँधा हुआ ४०४, स्वरोदयशास्त्र भी कालकृत नियम की सम्पुष्टि करता है ४०४, कालगत नियमों पर अन्ध-विश्वास, अविश्वास और विश्वास का परिणाम ४०५, नया सम्बन्ध बाँधने में कालगत नियमों का उपयोग ४०६, जीवन के तीन अवस्थागत नियम भी कर्मविपाक को प्रभावित करते हैं ४०६, निद्रा भी कालगत नियम से सम्बद्ध, कर्मविपाक की कारण ४०८, फल दिये बिना भी कर्म आत्मा से अलग हो सकते हैं : कैसे और किस नियम से? ४०८, स्थितिकाल पूरा होने से पहले भी कर्मफल-प्रदान कर सकते हैं : कैसे और किस नियम से? ४०८, भावों के निमित्त से शुभाशुभ कर्मफल या कर्मक्षय भी ४०९, अर्जुन मुनि ने भावों के संक्रमण एवं परिवर्तन द्वारा इस सत्य को साकार कर दिया ४१0, कर्मफल भोगते समय न तो दीन बनो, न ही मदान्ध बनो, किन्तु समभावस्थ रहो ४११/ (९) पुण्य-पापकर्म का फल : एक अनुचिन्तन पृष्ठ ४१२ से ४४८ तक संसार का चक्र कर्म की धुरी पर चलता है ४१२, जीवरूपी क्षेत्र में बोया गया जैसा बीज, वैसा ही फल ४१२, पुण्य और पाप का फल : सुख और दुःख ४१३, पुण्य और पाप का अस्तित्व : एक अनुचिन्तन ४१४, पुण्य की महिमा ४१४. पुण्यकर्म का सुफल : वैदिक वाङ्मय में ४१५, जैनदृष्टि से पुण्यफल की चर्चा ४१५, पुण्य की महिमा और सुफलता ४१६, पुण्यफल भोगने के बयालीस प्रकार ४१७, पुण्यफल प्राप्त करने के मुख्य स्रोत : नौ प्रकार के पुण्यकर्म ४१७. पूर्वकृत अतिशय पुण्य से सम्पन्न जीव को मनुष्य-जन्म में दशविध भोग-सामग्री ४१८, पापकर्म करने में अन्तरात्मा को कितना दुःख, कितना सुख ? ४१८. जैनदृष्टि से पापकर्म के फल ४१९, इहलोक में भी पापकर्म का फल अतीव भयंकर दुःखरूप ४१९, पापकर्मरत मानवों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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