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* विषय-सूची : द्वितीय भाग * २९९ *
(६) कर्मफल : यहाँ या वहाँ, अभी या बाद में ?
पृष्ठ ३१३ से ३४१ तक जैसा कर्म, वैसा ही फल मिलेगा ३१३, पश्चात्ताप-प्रायश्चित्तादि से कृत पाप कर्मफल से बचाव ३१३, शुभ या अशुभ कर्म का फल अवश्य ही मिलता है ३१४, वेदना और निर्जरा का अस्तित्व ३१४, कर्म के फल से बचने या उसका रूपान्तर करने का नियम 3१७. तत्काल फलवादियों का कतर्क ३१७. कर्म अभी
और फल अभी नहीं : कर्मविज्ञान पर आक्षेप ३१८, कर्म के कार्य-कारण-सिद्धान्त के विषय में कुतर्क और समाधान ३१८, चार्वाक और ह्यूम के सिद्धान्त का कर्मविज्ञान द्वारा निराकरण ३१८, जैन-कर्मविज्ञान क्रिया का फल तो तत्काल मानता है, किन्तु ३१९, कर्मबन्ध या कर्मार्जन तो तत्काल, किन्तु फलभोग प्रायः तत्काल नहीं ३१९, कर्म का फलभोग तत्काल नहीं : क्यों और कैसे? ३२०, आक्षेप और समाधान ३२०, कभी-कभी कर्मफलोपभोग तत्काल नहीं : क्यों और कैसे ? ३२०, सत्ता में पड़े हुए बद्ध कर्म फलभोग नहीं करा पाते ३२१, कर्मों के अर्जन का कार्य क्षणभर में, किन्तु फलभोग का कार्य काफी बाद में ३२२, कर्मफल और कर्मफलोपभोग में अन्तर क्यों? ३२२, इहलोककृत कर्म का फल : इस लोक में भी, परलोक में भी ३२३, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध से कर्मफलभोग की काल-सीमा तथा तीव्रता-मन्दता का पता चलता है ३२४, कर्ता के परिणामानुसार कर्मफलभोग की काल-सीमा (स्थिति) निर्धारित होती है ३२४, इस लोक में कृत कर्म का इसी लोक में फलभोग : एक सच्ची घटना ३२५, इस लोक में कृत कर्म का फलभोग अगले लोक (जन्म) में ३२८, परलोक में कृतकर्म का फलभोग आगामी जन्म में तथा इस जन्म में भी ३२८, कर्मफल सभी सांसारिक जीवों को अवश्य भोगने पड़ते हैं ३२९, चौथा विकल्प : परलोक कृत कर्म का फलभोग परलोक में ही ३३०, आचार्य रजनीश के एकान्त प्ररूपण का खण्डन ३३०, कर्मफल-विषयक असंगति का निराकरण ३३०, एकान्त तत्काल फलवादी : कर्मविज्ञान के रहस्य से अनभिज्ञ ३३१, जैन-कर्मविज्ञान में कर्म. कर्मफल और कर्मफलभोग में अन्तर ३३२. इसी जन्म में कर्मफलभोग का शास्त्रीय प्रमाण ३३२, तत्काल कर्मफलभोग का एक उदाहरण ३३२, एक महीने बाद ही कुकर्म का फल भोगना पड़ा ३३३, क्रूरकर्मा ड्रोक्यूला को उसी जन्म में कटुफल भोगना पड़ा ३३३, काज ने अपने कृत पापों का फल इसी जन्म में भोगा ३३४, क्रूरकर्मा इवान को अपनी करणी का फल मिला ३३५, मुसोलिनी के पाप का घड़ा अन्त में फूटकर रहा ३३५, सामूहिक हत्याओं का कुफल हिटलर को भी मिला ३३६. इस जन्म के पापों का फल इसी जन्म में ३३६, कृत कर्मों के फलभोग में काल का अन्तर क्यों? ३३६. कर्मों के फलभोग की काल-सीमा ३३७. कर्मों का फलभोग शीघ्र, देर से और तत्काल : क्यों और कैसे? ३३८, हिंसक की समृद्धि और अर्हद् भक्त की दरिद्रता : पापानुबन्धी पुण्य तथा पुण्यानुबन्धी पाप के कारण ३३९, घोर पापकर्म का फल कई जन्मों के बाद भी, एक जन्म में भी ३३९, दुःखविपाक और सुखविपाक में कर्मफलभोग का सजीव चित्रण ३४०.जैन-कर्मविज्ञान में अनेकान्तदृष्टि से कर्मफलभोग का सिद्धान्त ३४१ (७) कर्म-महावृक्ष के सामान्य और विशेष फल
पृष्ठ ३४२ से ३७५ तक ___कर्म-महावृक्ष एक. उसके पुष्प-फलादि असंख्य और अनन्त ३४२, जैन-कर्मविज्ञान : कर्म के मूल से लेकर फैल तक का तथा उससे मुक्ति का सांगोपांग प्ररूपक ३४३, कर्मफलभोग के समय अगणित फल वाले वृक्ष के रूप में ३४४, कर्म-महावृक्ष के असंख्य पत्र-पुष्प-फलों की गणना करना अशक्य : क्यों और कैसे? ३४४, सर्वज्ञ आप्त वीतराग परमात्मा द्वारा कर्म के सामान्य और विशेष फलों का निरूपण ३४५, ज्ञानावरणीयादि अष्टविध कर्म-प्रकृतियों के फलभोग का निर्देश ३४५, फलदान की दृष्टि से कर्मों का जातिगत अष्टविध वर्गीकरण ३४३. ज्ञानावरणीयादि अष्टविध कर्मों के फल की विचित्रता ३४९, अष्टविध कर्मों के विचित्र विपाक को हृदयंगम करने से लाभ ३४९, अष्टविध कर्मों के विचित्र एवं विभिन्न विपाक कैसे-कैसे, किन निमित्तों से? ३४९. ज्ञानावरणीय कर्म का अनुभाव (फल) दस प्रकार का : कैसे-कैसे ? ३५0, ज्ञानावरणीय कर्म के त्रिविध उदय से प्राप्त निरपेक्ष एवं सापेक्ष फल ३५१, दर्शनावरणीय कर्म के नौ प्रकार के अनुभाव (फल) ३५१. गति आदि के निमित्त से कर्मफल का तीव्र विपाक ३५२, फलविपाक की दृष्टि से कर्मों की विचित्रता : कर्मफल की विभिन्नता का आधार ३६०, पालदान-शक्ति की मुख्यता की अपेक्षा पुण्य-पाप फल : मधुर और कटु ३६१, घाति और अघाति के भेद से कर्मों की विविध स्तर की फलदान-शक्ति ३६२, कर्मवृक्ष से सम्बन्धित विशेष फल ३६३, विभिन्न पापकर्मों का विशेष फल. ३६३, विविध पुण्यकर्मों के विशेष फल ३७३-३७५ ।
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