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* २९८ * कर्मविज्ञान : परिशिष्ट *
जड़ पदार्थों की शक्ति का चमत्कार २६७, जड़-परमाणुओं की विलक्षण शक्ति के चमत्कार २६८: आवाज पर चलने वाला बिजली का पंखा, अद्भुत नल, बिजली का वल्ब, जीवित मानव (शरीर) का रेडियो (यंत्र). टेलीविजन २६८, परमाणु-शक्ति के चमत्कार २६९, टेलीप्रिंटर, बेरोमीटर, कम्प्यूटर, रोबोट (यंत्र-मानव), लोहे की बनी गाय, राडार यंत्र, राकेट (प्रक्षेपणास्त्र), मिसाइल, एपोलो, लूनीखोद २६९, जड़-पदार्थों की शक्ति का प्रकटीकरण आत्म-चेतना का सम्पर्क होने पर ही २७३. उदाहरण द्वारा तथ्य का स्पष्टीकरण २७४, मानसिक (मनोवर्गणा) पुद्गलों का चेतन पर प्रभाव २७५, कर्म अपने आप फन्न दे देते हैं, अन्य नियामक की आवश्यकता नहीं २७६. कर्मफलदात्री शक्ति का आधार : कार्मणशरीर २७७, कर्म के द्वारा फल देना, उस बद्ध कर्म के कपाय पर निर्भर २७९। (४) कर्मफल : वैयक्तिक या सामूहिक ?
पृष्ठ २८० से ३०१ तक ___ कर्म-सिद्धान्त वैयक्तिक जीवन की तरह सामाजिक जीवन से भी सम्बद्ध २८०, मानव-जाति की . पीड़ाओं और दुःखों का कोई कारण नहीं : एक आक्षेप २८0, जैन-कर्मविज्ञान द्वारा इसका समाधान २८१, सामूहिक रूप से बद्ध कर्म का सामूहिक रूप से फल : एक दृष्टान्त २८३. एक साथ पापकर्म का बन्ध कैसे हो जाता है ? २८३, सामूहिक हिंसादि पापकर्म का कृत. कारित, अनुमोदित रूप से सामूहिक बन्ध और फल २८४, कृत, कारित, अनुमोदि रूप से पापकर्मों का फल वैयक्तिक भी, सामूहिक भी २८४, मानव-समुदाय की पीड़ा का कारण स्वयं मानव-समुदाय है २८४, ईश्वर भी मानव-समूह की पीड़ा का कारण नहीं : क्यों और कैसे? २८५, प्रकृति मानव-समूह की पीड़ा का साक्षात् कारण नहीं. निमित्तकारण हो सकती है २८५, जैन-कर्मसिद्धान्त संवर, निर्जरा और मोक्ष तत्त्व द्वारा स्वयं कर्तृत्व का अवसर प्रदाता २८५, कर्म : कथंचित वैयक्तिक, कथंचित् सामाजिक २८५, सामुदायिक क्रिया द्वारा सामुदायिक कर्मबन्ध और विपाक २८६. वर्तमान में आये सामूहिक दुःख का कारण भी पूर्वकृत सामूहिक कर्मवन्ध २८७. एक व्यक्ति द्वारा किये हुए दुष्कर्म का फल सारे परिवार को मिलता है २८७, सामूहिक कर्मफल की संगति इस प्रकार होती है २८८, एक शासक के कुकृत्य का फल सारी प्रजा को भोगना पड़ता है २८८. कर्म एक का, फलभोग समूह को : कयो और न ? २८९, कर्ग सामूहिक या सामाजिक न होता तो एकमात्र मुख्य कर्मकर्ता ही फल भोगता २९०. कम और कर्मफल वैयक्तिक भी है, सामूहिक या सामाजिक भी है २९०, उपादान की दृष्टि से आत्मा स्वयं ही कर्म करता है. स्वयं ही फल भोगता है २९0. निमित्तकारण व्यक्तिगत नहीं, सामूहिक होता है २९१, परिणाम म्यूहिक, किन्तु संवेदन व्यक्तिगत २९१. उपादान वैयक्तिक, निमित्त सामूहिक २९२. आचरण व्यक्तिनिष्ट व्यवहार समाजनिष्ट : क्रिया वैयक्तिक, प्रतिक्रिया माहिक २९२, कर्म और कर्मफल वैयक्तिक भी, सामाजिक भी : क्यों और कैसे ? २९३, वैयक्तिक कर्मों का संक्रमण नहीं, सामाजिक कर्मों में ही संक्रमण २९३. माता पिता के कर्म का फल संतान को : क्यों और कैसे? २९४, उपादानकाराण की अपेक्षा से कर्मफलभोग व्यक्तिगत. निमिनका रण की अपेक्षा से सामूहिक २९४, कर्म सामूहिक. सुख-दुःख-संवेदन अपना-अपना. फलभोग पृथक्-पृथक् २९५. कर्म सामूहिक, फल भी कथंचित् सामूहिक, कर्थावत् व्यक्तिगत : क्यों और कसे ? : ९६, कर्म की अशुद्धता दूर हो तो समूह के लिए किये गा शुभ कर्म का फल भी सुखकारक : ७, देला या अगणी का प्रभाव या संक्रमण साभूहिक होता है २९८, कर्म को सामूहिक फल-प्राप्ति मित्त को अपक्षा से २९८. निमित्त की दृष्टि से ही नहीं, उपादान-दृष्टि से भी विचार करो २९८. उपामान पर सारा बोझ न डालो, निमित्त का विचार भी करो २९९. कर्मोदय की दो अवस्थाएँ : स्वयं उसो त, बरे धीरित २९९, दो दृष्टान्तों द्वारा वैयक्तिक की तरह सामूहिक कर्मविपाक २९९, I वैयक्तिक कर्मफल, II सामूहिक कर्मफल ३00, भूकम्प आदि आकस्मिक दुर्घटना के निमित्त से हजारों को एक साथ कर्मफल-प्राप्ति ३00, सामूहिक या समाजिक कर्मफल न मानने पर ३०१ । (७ क्या कर्मफलभोग में विनिमय या संविभाग है ?
पृष्ठ ३०२ से ३१२ तक एक के शुभाशुभ कर्मफल को दूसग कोई भी ले या दे नहीं सकता ३०२. कर्न के फलभोग में कोई भी हिस्सा नहीं करता ३०३, एक व्यक्ति के शुभाशुभ कर्मफल में दूसग हिस्सेदार नहीं हो सकता ३०३. झमफल मिलने एवं कर्मफल भोगने में अन्तर है ३०४, प्राणी स्वकृत सुख-दुःख का वेदन करता है. परकृत का नहीं ३०५. एक के कम का दूसरा नहीं भोग सकता, दुःख का भी काट नहीं सकता ३११-३१२ ।
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