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* २८४ * कर्मविज्ञान : परिशिष्ट *
तृतीय खण्ड : कर्म का विराट् स्वरूप निबन्ध १४
पृष्ठ ३५३ से ६२० तक (१) 'कर्म' शब्द के विभिन्न अर्थ और रूप
पृष्ठ ३५५ से ३६६ तक ___कर्म का सार्वभौम साम्राज्य और विश्वास ३५५, 'कर्म' शब्द का प्रयोग : विभिन्न क्षेत्रों में, विभिन्न अर्थों में ३५५, 'कर्म' शब्द : क्रियापरक अर्थ में, विभिन्न परम्पराओं में ३५६, आश्रय, स्वभाव और समुत्थान की दृष्टि से त्रिविध कर्म ३५८, समुत्थान के आधार पर कर्मों का द्विविध वर्गीकरण ३५८, कर्म के अर्थ में क्रिया से लेकर फलविपाक तक समाविष्ट ३५८.जैनदष्टि से कर्म के अर्थ में क्रियां और उसके हेतुओं का समावेश ३५९, 'कर्म' शब्द समग्र कार्य-अर्थ में व्यापक ३५९, 'कर्म' शब्द में क्रिया से लेकर फल तक के सारे अर्थ समाविष्ट ३५९, कर्म : स्पन्दनक्रियारूप त्रिविध योग ३५९, स्पन्दनक्रियाजन्य संस्कार भी 'कर्म' शब्द के अर्थ में सन्निहित ३६०, पुद्गलों का योग और कपाय के कारण कर्मरूप में परिणमन ३६१, कार्मणपुद्गलों का ही कर्मरूप से परिणमन ३६१, संस्कारयुक्त कार्मणपुद्गल : चिरकाल तक जीव से सम्बद्ध ३६२; त्रिविध द्रव्यकर्म : विभिन्न अपेक्षाओं से ३६२, कार्मणपुद्गल 'कर्म' क्यों और कैसे कहे जाते हैं ? ३६२, द्रव्यकर्म की व्याख्या ३६३, 'कर्म' शब्द का अभिधेयार्थ और व्यंजनार्थ ३६३, कर्म के. समानार्थक शब्द : विभिन्न परम्पराओं में ३६३, छह द्रव्यों में कथंचित् द्रव्यकर्मत्व ३६५, जैनदृष्टि से कर्म सामान्य का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ ३६५-३६६। (२) कर्म के दो रूप : भावकर्म और द्रव्यकर्म
पृष्ठ ३६७ से ३८५ तक कर्म का द्रव्यात्मक एवं भावात्मक रूप ३६७, कर्म का निर्माण : जड़ और चेतन दोनों के मिश्रण से ३६७, कर्मवद्ध संसारी जीव में ही जड़-चेतन-मिश्रण से कर्मद्वयरूप ३६८, कर्म के दो रूप : अजीवकर्म और जीवकर्म ३६९, संसारी आत्मा और कर्म में अन्तर क्या? ३६९, द्रव्यकर्म और भावकर्म : दोनों आत्मा से सम्बद्ध ३६९, कर्म और प्रवृत्ति में कार्य-कारणभाव को लेकर द्रव्य-भावकर्म ३७०, द्रव्यकर्म और भावकर्म की उत्पत्ति की प्रक्रिया ३७१, उपादान, निमित्त और नैमित्तिक कारण के सिद्धान्तानुसार द्रव्य-भावकर्म ३७१, भावकर्म और द्रव्यकर्म की परस्पर निमित्त-नैमित्तिक शृंखला ३७२, दोनों कारणों का स्वरूप और परस्पर एक-दूसरे के निमित्त ३७३, भावकर्म द्वारा द्रव्यकर्म की उत्पत्ति ३७३, भावकर्म क्रिया है, द्रव्यकर्म है फल ३७३, द्रव्य-भावकर्मों में द्विमुखी कार्य-कारणभाव ३७३, दोनों में बीजांकुरवत् कार्य-कारणभाव ३७४, संतति की अपेक्षा से द्रव्य-भावकर्म का परस्पर अनादि कार्य-कारणभाव ३७४, भावकर्म की उत्पत्ति में द्रव्यकर्म को कारण क्यों मानें? ३७५, दोनों में पारस्परिक कार्य-कारणभाव का स्पष्टीकरण ३७५, भावकर्म की उत्पत्ति कैसे? : एक विश्लेषण ३७६. योग और कपाय : दोनों ही आत्मा की प्रवृत्ति के दो रूप ३७६, दोनों कर्म साथ-साथ आत्मा से सम्बद्ध ३७७, जितना कषाय तीव्र-मन्द, उतना ही कर्म का बन्ध तीव्र-मन्द ३७७, द्रव्य-भावकर्म की तीव्रता-मन्दता क्या है, क्या नहीं? ३७८, जितना भावकर्म तीव्र-मन्द, उतना ही सूक्ष्मकर्म तीव्र-मन्द ३७८, वेदान्तदर्शन में आवरण और विक्षेप के रूप में द्रव्य-भावकर्म ३७९, नैयायिक-वैशेषिकों की दृष्टि में द्रव्यकर्म और भावकर्म ३७९, योग और सांख्यदर्शन में द्रव्यकर्म-भावकर्म के साथ सामंजस्य ३८0, सांख्यमत में द्रव्य-भावकर्म की तुलना जैनदर्शन से ३८१, बौद्धदर्शन में भावकर्म और द्रव्यकर्म प्रकारान्तर से मान्य ३८३, मीमांसादर्शन में भावकर्म और द्रव्यकर्म की संगति ३८४. भगवदगीता में प्रकारान्तर से द्रव्यकर्म-भावकर्म ३८४. निष्कर्प ३८५। (३) कर्म : संस्काररूप भी, पुद्गलरूप भी
पृष्ठ ३८६ से ४०५ तक ___ कर्म : कार्यकारण का एक नियम ३८६, आत्मा की वैभाविक क्रियाएँ कर्म हैं ३८६. क्रिया-प्रतिक्रिया का नियम भी कर्म-संस्काररूप ३८७, क्रिया की पुनः-पुनः प्रतिक्रिया ३८७, एक ही क्रिया की अनेक बार प्रतिक्रिया ३८७, प्रमाद ही संस्काररूप कर्म (आम्रव) का कारण ३८८, संस्कार का निर्माण : कव और कव नहीं? ३८८, कर्म का अर्थ : चित्तवृत्ति या संस्कार-निर्माण ३८९, कर्म-प्रवृत्ति के संस्कारों का संचय ही
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