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* विषय-सूची : द्वितीय भाग * २९५ *
वालों का चिन्तन एवं क्षमता १५६, कर्म-सिद्धान्त से अनभिज्ञ व्यक्ति की दुर्दशा १५७, कर्म-सिद्धान्त से अनभिज्ञ व्यक्तियों द्वारा पराजयवाद का आश्रय १५७, कर्म-सिद्धान्त से अनभिज्ञ ही कर्म के विषय में भ्रान्त एवं भयभीत १५८, कर्म की शक्ति के विषय में भ्रान्त धारणा भी निराशावाद की जननी १५८, कर्मवाद : सत्पुरुषार्थयुक्त आशावाद-सूचक १६०, कर्मवाद के रहस्य से अनभिज्ञ व्यक्ति : निराश, निष्क्रिय और पुरुषार्थहीन १६०, जैन-कर्मवाद ही परिवर्तन-सिद्धान्त का प्रेरक १६०, उदीरणा का पुरुषार्थ : कर्म को उदय में लाकर शीघ्र भोग लेने का उपाय १६१, स्वयं का दोष : कर्म के सिर पर : कर्मवाद की भ्रान्त धारणा, १६१.जैन-कर्मविज्ञान स्वावलम्बी पुरुषार्थ के अनकल है १६२, कर्मनिर्जरा-सिद्धान्त पुरुषार्थ-प्रेरक है १६२, कर्मवाद-सिद्धान्त निराशाबोधक नहीं, जीवन-परिवर्तनबोधक है १६३, सच्चा कर्मवादी : प्रत्येक प्राणी में शुद्ध चेतना के दर्शन करता है १६३. जीव के साथ अनादिकाल से लगा कर्म-चक्र १६३. आत्मा कर्माधीन या इच्छा-स्वतंत्र? १६४, प्राणी कर्म करने में भी स्वतंत्र, फल भोगने में भी कथंचित् स्वतंत्र १६५, कर्मवाद
आत्म-शक्तियों का स्वतंत्रतापर्वक उपयोग करने का अवसर देता है १६५ इच्छा-स्वातंत्र्य का अर्थ: स्वेच्छाचारिता नहीं १६६, कर्म कितना ही शक्तिशाली हो, अन्त में आत्मा ही विजयी होता है १६६, कर्म
आत्मा पर एकाधिकार नहीं जमा सकता १६६, ज्ञानादि चतुष्टयरूप मोक्षमार्ग की साधना से कर्मों के संचित दिशाल पुँज को तोड़ सकता है १६७, अपने आन्तरिक वैभव को जानो-देखो १६७, कर्मविज्ञान कर्म की शक्ति-अशक्ति की सीमा का स्पष्ट निर्देशक १६७. बद्ध कर्मों की बन्ध से लेकर मोक्ष तक की ग्यारह अवस्थाएँ १६८.जैन-कर्मवादका बन्य से बचने का शभ सन्देश १६८. प्रदेशोदय और विपाकोदय का रहस्य १७०. आम्रव, बन्ध, सत्ता और उदय में घनिष्ट सम्बन्ध १७०, उदीरणा : उदय में आने से पूर्व ही कर्मफल भोग का उपाय १७१, उद्वर्तन द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति और अनुभाग में वृद्धि १७१. अपवर्तना से पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति और अनुभाग में न्यूनीकरण १७३. संक्रमण : कर्मों की स्थिति आदि में परिवर्तन का सूचक १७४, उपशमन : कर्मों के फन टेन की गरेको अमुक काल तक दबा देना है १७४, निधत्त : उदीरणा और संक्रमण से रहित केवल स्थिति और रस को यूनधिकला का सूचक ७५, निकाचन दक्ष : जिस रूप में कर्म बँधा है, उसी रूप में भोगने की अनिवार्यता १७५, अबाधाकाल : कर्मों का फल दिये बिना अमुक अवधि तक पड़े रहने की दशा १७५, जैन-कर्मविज्ञानात दस अवस्थाओं की अन्य परम्पराओं से तुलना १७६-१७७। (११) कर्मवाद और समाजवाद में कहाँ विसंगति कहाँ संगति? पृष्ठ १७८ से १९६ तक ___ कर्मवाद भारतीय जन-जोवन युवा-मिला १७८. के पाद : आत्मवादरूपी मूल पर स्थित त्रिलोकव्यापी वृक्ष १३, कर्मवाद का आत्माद. लोकवाद क्रियावाद के साध घनिष्ठ सम्बन्ध १७९, कर्मवाद का सम्बनः तीनों कालों और तीनों लोकों से 338. कर्मवाद प्रति कर्म का सम्बन्ध अर्थ-काम से, धर्म का धर्म-मोक्ष से १८०. प्राचीनकाल का भारतीय समाज धर्म १८0, समाजवाद के बदले समाज-धर्म का प्रयोग १८०, कर्मवाद द्वारा निरूपित कर्म-विश्लेषण धर्म और कर्म दोनों दृष्टियों से १८१, प्रत्येक वाट के पीछे कर्मवाद का पुट १८:. प्राचीनकालिया समाज-व्यवस्था में अर्थ-काम की प्रधानता १८१. एका अर्थ-काम-प्रधान समाज-रचना के दोष १८२, उपनिषदकालीन ऋषियों द्वारा परस्पर सहयोगी मानव-समाज की प्रेरणा १८२, भगवान महावीर ने अध्यात्ममूलक समाज व्यवस्था के सूत्र दिये १८२ वर्तमान समाजवाद : एक समीक्षा १८५. समाजवाद का रितीय सिद्धान्त : व्यक्ति का निर्माण परिस्थिति पर निर्भर १८७, समाजवाद का तृतीय सिद्धान्त : समाज-व्यवस्था का परिवर्तन १८७, आन्तरिक वैभव ही वास्तविक वैभव है ३९१. जैन-कर्मवाद सत्परुषार्थ को रोकता नहीं १९१. कर्मवाद निर्धन को भी विकसित होने का मौका देता है १९१, समाजवाद का तीसरा पक्ष : राजनैतिक क्रान्ति १९२, क्या साम्यवाद आने से कर्मवाद समाप्त हो जाएगा? १९३, आर्थिक व्यवस्था बदल जाने मात्र से कर्मवाद समाप्त नहीं हो जाता १९३, कर्म की मुख्यतया दो प्रकृतियाँ : जीवधिपाकी और कर्मविपाकी १९३, जहाँ शरीरादिगत समानता नहीं, वहाँ कर्म का साम्राज्य हे १९४, समाजवाद द्वारा कृत परिवर्तन : आन्तरिक और सर्वांगीण नहीं १९४: राज्य-सत्तारहित राज्य का लक्ष्य : दूरातिदूर १२५, समाजवादी व्यवस्था और कल्पातीत व्यवस्था में अन्तर १९६. आर्थिक समानता का प्रयोग : कर्मवाद-सिद्धान्त का पूरक १९६।
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