Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 436
________________ * २८२. * कर्मविज्ञान : परिशिष्ट * मानने का प्रबल कारण २१६, कौन-सी प्रवृत्ति उपादेय, कौन-सी हेय? २१७, साम्परायिक कर्मबन्ध से बचो, ऐर्यापथिक से बचना कठिन २१७, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-पुरुषार्थ की मर्यादाएँ २१८, मोक्षलक्ष्यी धर्मयुक्त अर्थ-काम-पुरुषार्थ २१८, संयम के हेतु मोक्ष-पुरुषार्थलक्ष्यी प्रवृत्ति निर्दोष है २१९, प्रवृत्ति-निवृत्ति का विवेक २२0, दो पुरुषार्थों को मानने वाले : प्रत्यक्षवादी चार्वाक आदि २२१, ऐसे प्रत्यक्षवादियों की विचारधारा में पुरुषार्थद्वय २२१, त्रिपुरुषार्थवादी कर्मवाद-समर्थक २२३, कर्म और कर्मफल के विषय में विचार : क्यों और कैसे? २२३, कर्मवादियों के मुख्य दो दल २२४, निवर्त्तक धर्मवादी दल : मोक्ष-पुरुषार्थ-प्रधान २२५, निवर्त्तक धर्मवादी दल का अभीष्ट : कर्मों से मुक्ति २२६, दोनों दलों की ध्येय दिशा में अन्तर २२७. निवर्त्तक दल के द्वारा कर्म-सिद्धान्त का व्यवस्थित विकास २२७. निवर्तक कर्मवादियों द्वारा मोक्ष-पुरुषार्थ के विषय में विशेष चिन्तन २२८, समस्त निवर्तक धर्मवादियों द्वारा मोक्ष को सर्वोच्च स्थान २२८, निवर्तक धर्मवादियों के मुख्य तीन पक्ष २२९, I प्रथम पक्ष-परमाणुवादी, II द्वितीय पक्ष-प्रधानवादी, NI तृतीय पक्ष-प्रधान छायापन्न परमाणुवादी-परिणामी परमाणुवादी २२९, लक्ष्य के प्रति सब एकमत, कर्म के स्वरूप के विषय में नहीं २२९, प्रवर्तक धर्म पहले प्रचलित था या निवर्तक धर्म? २३०-२३२। (३) कर्मवाद का आविर्भाव पृष्ठ २३३ से २५0 तक आत्मा और परमात्मा के बीच में अन्तर का कारण : कर्म २३३. जैनदृष्टि से कर्मवाद का आविर्भाव २३४, सर्वथा कर्ममुक्ति की ओर जाना अनिवार्य २३४, अनादि कर्मप्रवाह को तोड़े बिना सदेह-विदेह परमात्मा नहीं बनते २३५, कर्मवाद के आविर्भाव का एक और प्रबल कारण २३५, कर्मभूमिक कालानुसार शुभ कर्मयुक्त जीवन जीने की प्रेरणा २३७, कर्ममुक्ति के लिए धर्म-प्रधान समाज का निर्माण २३८, धर्म, कर्म, संस्कृति आदि का श्रीगणेश २३९, कर्म को ही सृष्टि की विविधता एवं विचित्रता का कारण बताया २३९. कर्मवाद का प्रथम उपदेश : भगवान ऋषभदेव के द्वारा २४०, कर्मवाद के पुरस्कर्ता : भगवान ऋषी २४१. वैदिक-परम्परा में कर्मवाद का प्रवेश : कब से, कहाँ से ? २४२, कर्मवाद का मूल स्रोत २४५, वैदिकों पर जैन-परम्परा के कर्मवाद का प्रभाव २४६. अदृष्ट की कल्पना भी वेदेतर प्रभाव का पारणाम २४६. वैदिकों द्वारा सृष्टि के अनादित्व की मान्यता पर जैन-परम्परा का प्रभाव २४७, अनादि संसार-सिद्धान्त का मूल : वेदेतर परम्परा में २४७, कर्मवाद का मूल उद्गम : जैन-परम्परा २४८, वैदिक परमाग में यज्ञादि के साथ कर्म का समावेश २४८. प्रजापति देवाधिदेव के साथ कर्मवाद का समन्वय २४८, वैदिकों में कर्मवाद का प्रवेश : क्यों, कब और किस रूप में? २४८, वैदिकों द्वारा कर्मवाद की स्पष्ट धारणा नहीं २४९, कर्मवाद का मूल और विकास जैन-परम्परा में ही २४९-२५01 (४) कर्मवाद का तिरोभाव-आविर्भाव : क्यों और कब? पृष्ठ २५१ से २७0 तक आविर्भाव या आविष्कार आवश्यकता होने पर होता है २५१, कर्मवाद का आविष्कार क्यों किया गया? ९५२. प्रागैतिहासिक काल में भगवान ऋषभदेव द्वारा आविर्भूत कर्मवाद २५३, नये-नये तीर्थंकरों द्वारा अपने अपने युग में कर्मवाद का आविर्भाव २२३, भगवान अरिष्टनेमि द्वारा तिरोभावापन्न कर्मवाद का आविर्भाव - ५४, भगवान पार्श्वनाथ द्वारा तिरोहित कर्मवाद का आविर्भाव २५७, पार्श्वनाथ ने कर्मवाद का तिरोभाव दूर किया २५८, कर्मवाद से अनभिज्ञ कमठ ने वैर-परम्परा बढ़ाई २५९, प्रभु पार्श्वनाथ द्वारा कमवाद का रहस्योदघाटन २६०. भगवान महावीर द्वारा कर्मवाद का आविर्भाव २६०. गणधरों की कर्मवाद-सम्बन्धित शंकाओं का समाधान २६२. कर्मवाद के तिगेभाव होने में तीन पबल कारण २६५ ईश्वरकर्तृत्ववाद की मान्यता में तीन मुख्य भूलें २६५. बौद्धदर्शन कर्मवाद को मानने पर भी क्षणिकवादी था २६८, भूत-चैतन्यवादियों का मत कर्मवाद विरोधी था २६९-२७०। ५) कर्मवाद के समुत्थान की ऐतिहासिक समीक्षा पृष्ठ २७१ से २८४ तक कर्मवाट का मूल स्रोत २७१, जैनदृष्टि से कर्मवाद का समुत्थानकाल २७१, कर्मवाद के समुत्थान का मूल स्रोत २७२, कर्मवाद-सम्बन्धी सांपोपांग वर्णन का मूल स्रोत २७३, मूल के आधार पर रचित कर्म-साहित्य २७४. नयवाद आदि के समान कर्मवाद का समत्थान भी भगवान महावीर से २७५, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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