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* २४६ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
समुद्घात होती हैं। अर्थात् केवली समुद्घात करने का सामन्य केवली या तीर्थंकर केवली का यही प्रयोजन है कि जो कर्म बन्ध से और स्थिति से सम नहीं हैं, उन्हें सम करके, चारों अघातिकर्म एक साथ क्षय हो सकें। योग (मन, वचन, काया की प्रवृत्ति) के निमित्त से जो कर्म आत्म-प्रदेशों के साथ एकमेक होते हैं, उन्हें कहते हैं-बन्धन; और कर्मों के वेदन के काल को कहते हैं-स्थिति। समुद्घात करने वाले केवली बन्धन और स्थिति, दोनों से वेदनीयादि तीन कर्मों को आयुष्यकर्म के बराबर करते हैं।
जिन केवलियों को आयुष्यकर्म का बन्धन और उसकी स्थिति वेदनीयादि शेष तीन भवोपग्राही कर्मों के तुल्य होती है, वे केवली समुद्घात नहीं करते। वे केवली समुद्घात किये बिना ही शेष चारों अघातिकर्मों का क्षय करके सिद्ध, बुद्ध एवं सर्वकर्ममुक्त तथा जन्म-मरणादि से रहित हो जाते हैं। ऐसे केवली बिना समुद्घात किये ही सिद्ध केवली बन जाते हैं। ऐसे अनन्त सिद्ध हुए हैं, परन्तु हुए हैं पहले सामान्य केवली होकर ही। सयोगी केवली योगों का पूर्ण निरोध किये बिना अयोगी केवली नहीं बन सकते __एक बात और, जब तक सामान्य केवली सयोगी है, तब तक वह सिद्ध-पूर्ण मुक्त नहीं हो सकते। अर्थात् सामान्य केवली यानी सयोगी केवली पहले काययोग का, फिर वचनयोग का और अन्त में मनोयोग का निरोध करके ही अयोगी केवली बन सकते हैं, पहले नहीं। अयोगत्व-प्राप्ति के अनन्तर ही वे एक साथ चार अघातिकर्मों का क्षय कर डालते हैं, इसके तुरन्त बाद ही औदारिक, तैजस् और कार्मण, इन तीनों शरीरों का भी सदा के लिए पूर्णतया त्याग कर देते हैं। फिर तत्काल ऋजु श्रेणी को प्राप्त होकर अस्पृशत् गति से एक समय में अविग्रह गति (बिना मोड़ की गति) पूर्वक ऊर्ध्वगमन करके साकारोपयोग से युक्त होकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त एवं परिनिवृत्त हो जाते हैं तथा सर्वदुःखों का अन्त कर देते हैं। सिद्ध केवली की विशेषताएँ-अर्हताएँ __इसके विपरीत सर्वकर्ममुक्त हो जाने से समुद्घात आदि करने की सिद्धों-मुक्तों को जरूरत नहीं पड़ती। सामान्य केवली सशरीर होते हैं, जबकि सिद्ध केवली अशरीरी, सघन-आत्म-प्रदेशों वाले, दर्शन और ज्ञान के उपयोग से युक्त होते हैं, वे कृतार्थ (निष्ठितार्थ), नीरज (कर्मरज से रहित), निष्कम्प, अज्ञानतिमरि से रहित और पूर्ण विशुद्ध तथा शाश्वत अनागतकाल तक रहते हैं। सिद्ध केवली के
१. प्रज्ञापनासूत्र, विवेचन, पद ३६, सू. २१७० (आ. प्र. स., ब्यावर) २. स्थानांगसूत्र, स्था. ४, उ. १, सू. १४२-१४३
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