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* मोक्ष की अवश्यम्भाविता का मूल : केवलज्ञान : क्या और कैसे-कैसे? * २६३ *
उसकी प्राप्ति कैसे होती है ? केवलज्ञान की प्राप्ति के मूल स्रोत कौन-कौन-से हैं ? एक दृष्टि से सोचें तो केवलज्ञान पूर्ण मोक्ष का मूलाधार है। इसके बिना पूर्ण मुक्ति-सर्वकर्मों से मुक्ति का द्वार खुल नहीं सकता। 'तत्त्वार्थसूत्र' में केवलज्ञान का लक्षण और उसके उत्पन्न होने के मूल स्रोतों का उल्लेख भी कर दिया है। वैसे ज्ञान के पंचम भेद में ज्ञान से पूर्व जो ‘केवल' शब्द रखा है, उसका आशय यही है कि जो अकेला हो, जहाँ केवल (सिर्फ) ज्ञान ही ज्ञान हो, निखालिस ज्ञान के साथ किसी प्रकार की विभावों-विकारों की मिलावट न हो, जो निरालम्ब हो, जिसे किसी दूसरे की सहायता की अपेक्षा न हो, साथ ही जो परिपूर्ण-ज्ञान हो तथा तीनों कालों और तीनों लोकों के समस्त द्रव्यों और पर्यायों को जानता हो, जिससे कुछ भी छिपा (प्रच्छन्न) न रहे, जिस पर किसी भी प्रकार का आवरण न रहे, उसे केवलज्ञान कहा जाता है, केवलदर्शन भी केवलज्ञान का निराकार रूप है। सूर्य में आतप और प्रकाश दोनों साथ-साथ रहते हैं, वैसे ही केवलज्ञान और केवलदर्शन दोनों साथ-साथ रहते हैं। वास्तव में देखा जाये तो ज्ञान के ही अनाकार और साकार ये दोनों (दर्शन और ज्ञान) प्रकार हैं। इन्हें ही सामान्य भाषा में सर्वज्ञता और सर्वदर्शिता कहा जा सकता है। कैवल्य में केवलज्ञान और केवलदर्शन इन दोनों का समावेश हो जाता है। केवलज्ञान हो जाने पर किसी प्रकार का द्रव्य या भाव अन्धकार नहीं रहता। मिथ्यात्व, अज्ञान, कषाय, राग, द्वेष, मोह आदि भावान्धकार हैं, जबकि बाहरी दुनिया में चाहे जितना अँधेरा हो, हाथ को हाथ न सूझता हो, केवलज्ञान जहाँ वा जिसमें होगा, वहाँ द्रव्य-अन्धकार देखने-जानने में कोई रुकावट नहीं डाल सकता। उसके लिए घोर अन्धेरे में भी प्रकाश ही प्रकाश है। 'तत्त्वार्थसूत्र' के प्रस्तुत सूत्र में केवलज्ञान का लक्षण इस प्रकार दिया है
“मोहक्षयाज्ञान-दर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम्।" --सर्वप्रथम मोह (कर्म) के क्षय होने के पश्चात् ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय (कर्म) का क्षय होना केवल है-कैवल्य है, केवलज्ञान-केवलदर्शन है। सिद्धान्त यह है कि पहले मोहनीय कर्म का पूर्ण रूप से नाश (क्षय) होता है, तत्पश्चात् ज्ञानावरणीय आदि शेष तीनों धातिकर्मों का युगपत्-एक साथ क्षय (नाश) होता है और इन चारों घातिकर्मों का पूर्ण क्षय होने पर ही कैवल्यदशा (केवलज्ञान-केवलदर्शन) प्रकट होती है, पहले नहीं। .. 'तत्त्वार्थसूत्र' में जैसे मोक्ष-प्राप्ति के आधारभूत केवलज्ञान-केवलदर्शन के प्रकटीकरण का क्रम बताया है, वही क्रम कर्मविज्ञान की दृष्टि से 'स्थानांगसूत्र' और 'उत्तराध्ययनसूत्र' में बताया गया है, जिनका मोह पूर्णतया क्षीण हो चुका है, ऐसे क्षीणमोही अर्हन्त के इसके (मोहकर्मक्षय के) पश्चात् निम्नोक्त तीनों कर्मों के
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