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* मोक्ष की अवश्यम्भाविता का मूल : केवलज्ञान : क्या और कैसे-कैसे? * २४९ *
(२) उसमें अपनी जाति, कुल, सम्पत्ति, वय तथा अन्य किसी भी प्रकार से हीनता का भाव नहीं आता, न ही रहता है।
(३) उसे दास-दासी आदि द्विपद तथा हाथी, घोड़े, गाय, बैल, भैंस आदि चतुष्पद की उत्तम समृद्धि प्राप्त होती है।
(४) उसके द्वारा अपना और दूसरों का महान् उपकार होता है। (५) उसका चित्त बहुत निर्मल होता है। वह सदैव उत्तम विचार करता है। (६) वह सभी बातों में धर्म को ही प्रधान (मुख्य) मानता है।
(७) विवेक द्वारा वस्तु का सच्चा स्वरूप जाने के कारण उसकी कोई भी क्रिया निष्फल नहीं होती।
(८) उसे उत्तरोत्तर अधिकाधिक शुद्ध होने वाले तथा अप्रतिपाती चारित्र की प्राप्ति होती है।
(९) वह चारित्र के साथ इतना तन्मय या एकमेक हो जाता है कि चारित्र-पालन करना उसका स्वभाव बन जाता है। अर्थात् उसके जीवन में सम्यक् (शुद्ध) चास्त्रि इस तरह परिणमित हो जाता है कि उससे बुरा काम कदापि नहीं होता।
(१०) वह भव्य प्राणियों को संतोष और आश्वासन देता है।
(११) वह मन के व्यापार (प्रवृत्ति) का निरोध करता है, इसी कारण उसे शुभ या शुद्ध ध्यानरूपी सुख की प्राप्ति होती है। " (१२) उसे आमर्ष-औषधि आदि उत्कृष्ट लब्धियाँ (सिद्धियाँ) प्राप्त हो जाती हैं। (१३) उसे अपूर्वकरण (आठवाँ गुणस्थान) प्राप्त हो जाता है। ...
(१४) इसके पश्चात् क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होने की योग्यता प्राप्त हो जाती है। जिससे वह क्षीणमोही वीतराग एवं केवली बन जाता है, उसके लिए फिर निश्चित ही मोक्ष का द्वार खुल जाता है। ‘क्षपकश्रेणी के स्वरूप, कारण और लाभ' के विषय में कर्मविज्ञान के पंचम भाग में हम विस्तार से निरूपण कर चुके हैं। . (१५) वह मोहनीयकर्मरूपी महासागर को सुखपूर्वक पार कर लेता है।
१. देखें-कर्मविज्ञान, पंचम भाग में-'ऊर्ध्वारोहण के दो मार्ग : उपशमन और क्षपण' शीर्षक
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