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* २०६ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
उस कृपण या भिखारी के समान हैं, जो पास में धन या साधन होते हुए भी न तो उसका व्यय करते हैं, न ही उपयोग। एक ऐसा ही अदूरदर्शी विवेकमूढ़ व्यक्ति था। उसके घर में एक गाय थी। वह जब दूध कम देने लगी तो उसने सोचा-'एक मास बाद ही मेरी पुत्री का विवाह होने वाला है। अगर मैं गाय को प्रतिदिन दुहता जाऊँगा तो दूध कम हो जाएगा। अतः कुछ दिनों तक दुहना बंद कर दूँ तो विवाह के समय एक-साथ बहुत-सा दूध मिल जाएगा।' यह सोचकर उसने दूसरे दिन से ही गाय को दुहना बंद कर दिया। नतीजा यह हुआ कि दुहना बंद कर देने से गाय की दूध देने की आदत छूट गई। एक महीने बाद जब वह गाय को दुहने बैठा तो गाय ने बिलकुल दूध नहीं दिया, क्योंकि गाय का सारा दूध सूख गया था। बेचारा मन मसोसकर रह गया। अतः शक्तियों का नियमित उपयोग न करने से उनके स्रोत बंद हो जाते हैं। शक्तियों का उपयोग करते रहने से वे घटती नहीं. बल्कि बढ़ती-विकसित होती हैं
आत्म-शक्तियों का उपयोग न करने का सोचना इसलिए गलत है कि शक्तियों का उपयोग करते रहने से वे घटती नहीं या व्यय नहीं होतीं, बल्कि वे बढ़ती हैं, विकसित होती हैं। आपने देखा होगा-हाइड्रो-इलेक्ट्रिक (जलीय विद्युत्) की उत्पत्ति पानी के बार-बार व्यवस्थित रूप से चक्कर लगाने से होती है। जलीय तरंगें ही एक साथ व्यवस्थित रूप से बार-बार घूमकर विद्युत् पैदा करती हैं। किसी भी रसायन को बार-बार घोंटा जाता है, तभी उसकी शक्ति (पोटेंसिएलिटी.) बढ़ती है। मशीनों को जितना-जितना चलाया जाता है, उनकी गति में उतनी-उतनी तीव्रता और चमक-दमक आती रहती है। अगर मशीनों को घिसने के डर से चलाया न जाए तो उनमें जंग लग जाता है, वे रगड़ खाकर कठिनाई से चलती हैं या छप्प हो जाती हैं। शरीर के हाथ-पैर आदि किसी भी अंग से काम न लिया जाए, इस डर से कि अगर इनसे काम लेंगे तो इनकी शक्ति कम हो जाएगी, तो इसका विपरीत परिणाम आता है। या तो वह अंग अकड़ जाता है या फिर वह शिथिल होकर दर्द करने लगता है। अतः शरीरशास्त्रियों का कथन है कि शरीर के अंगोपांगों से जितना अधिक काम लिया जाता है, उतना ही तीव्र गति से उनमें रक्त का संचार होता है और वे उतने ही अधिक सशक्त और सुदृढ़, स्फूर्तिमान और पराक्रमी वनते हैं। इसी प्रकार आत्म-शक्तियों का भी उचित उपयोग न किया जाए तो वे धीरे-धीरे सूखती और समाप्त होती चली जाती हैं। अधिकांश लोग इसी भ्रान्तिवश अपनी आत्म-शक्तियों को छिपाते-गोपन करते रहते हैं। आचार्य जिनदास महत्तर ने कहा था-"संते वीरिए ण णिगृहियव्वं।"-यदि शक्ति हो तो उसे छिपानी नहीं चाहिए। उनका अधिकाधिक उपयोग करने से वे शक्तियाँ बढ़ती हैं। आपने सुना होगा एक बार एक ठाकुर और
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