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परमात्मभाव का मूलाधार : अनन्त शक्ति की अभिव्यक्ति * २२१ *
में निहित शक्तियों का जागृतिपूर्वक अभ्यास एवं नियमित रूप से सम्यक् उपयोग करने से ही पूर्ण परमात्म-शक्ति का दूसरे शब्दों में कहें तो अनन्त आत्म-वीर्य का प्रकटीकरण होगा।
आत्म-शक्ति को जाग्रत करने में मुख्य
पाँच आयामों का विचार करना आवश्यक
परमात्म-शक्ति स्वभावरूप आत्म-शक्ति को जाग्रत करने के लिए प्रयत्नशील मुमुक्षु साधक को पाँच आयामों पर क्रमशः सर्वांगीण रूप से, सभी पहलुओं से विचार करना आवश्यक है - ( 9 ) आत्म-शक्तियों का स्वरूप, महत्त्व, उपयोग और उपयोग विधि, (२) तदनन्तर उन शक्तियों को जाग्रत करने का पुरुषार्थ करना, (३) तत्पश्चात् जाग्रत शक्तियों को सँभालना और पचाना, (४) प्राप्त (उपलब्ध) शक्तियों का यथार्थ यथोचित आत्म-विकांस दृष्ट्या उपयोग या प्रयोग करना, और (५) उपलब्ध आत्म-शक्तियों को मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योगों से, कर्मास्रवों से तथा परभावों-विभावों आदि बाधक कारणों से बचाना, सब प्रकार से उनकी सुरक्षा करना । तात्पर्य यह है कि आत्म-शक्तियों को जाग्रत करने की साधना में आत्मार्थी सम्यग्दृष्टि मुमुक्षु साधक को इन पाँच मुख्य आयामों से अपनी मोक्ष यात्रा या परमात्मपद - प्राप्ति यात्रा करनी हितावह होगी, अन्यथा आत्म-शक्ति जागरण में वह अन्त तक पूरी सफलता प्राप्त नहीं कर सकेगा ।
विद्या, धन, मंत्रसिद्धि, लब्धि या सिद्धि प्राप्त हो जाने पर मनुष्य की भौतिक शक्ति बढ़ जाती है। इन शक्तियों के बढ़ जाने पर यदि किसी भी प्रकार से मद, मत्सर, अहंकार, ममकार या दूसरों के प्रति तिरस्कार या घृणा के भाव बढ़ जाएँ तो पतन का बहुत ही खतरा है । 'स्थानांगसूत्र' में कहा गया है - " जिसे आत्मा का, आत्म-हित का भान हो गया है, जिसका अहंकार - ममकार दूर हो गया है, ऐसा विनम्र और उदार व्यक्ति आत्मवान् है, इसके विपरीत जिसे अपनी आत्मा का, आत्म-हित का भान नहीं हुआ है, जो अहंकार-ममकार से ग्रस्त है, अविनम्र और अनुदार है, वह अनात्मवान् है । अनात्मवान् व्यक्ति के लिए निम्नोक्त छह बातें अहित, अशुभ, अक्षमा, अनिःश्रेयस, अनानुगामिता ( अशुभानुबन्ध) के लिये होती हैं। यथा- (१) पर्याय (अवस्था या दीक्षा में बड़ा होना), (२) परिवार, (३) श्रुत, (४) तप, (५) लाभ, और (६) पूजा-सत्कार । आत्मवान् साधक के लिए ये ही छह बातें (पर्याय, परिवार, श्रुत, तप, लाभ और पूजा - सत्कार) हितरूप, शुभरूप, सक्षम, निःश्रेयस योग्य तथा आनुगामिता ( शुभानुबन्ध) के लिए होती हैं। आशय है कि अनात्मवान् व्यक्ति को दीक्षा - पर्याय या अधिक वय, शिष्य परिवार या कुटुम्ब-परिवार, श्रुत (शास्त्रज्ञान ), तप ( बाह्याभ्यन्तर तप ) और पूजा -सत्कार की उपलब्धि से अहंकार-ममकारभाव उत्तरोत्तर बढ़ता है। उससे वह दूसरों को हीन
यह
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