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* परमात्मभाव का मूलाधार : अनन्त शक्ति की अभिव्यक्ति * २२५ *
उनका भौतिक शक्ति का प्रदर्शन आध्यात्मिक शक्ति को ले बैठा। मुनि का आवेश यहीं तक ही आकर नहीं रुका। उनके अन्तर में प्रतिशोध की आग भड़क उठी। विशाखनन्दी के साथ बँधे हुए वैर का बदला लेने की कुवृत्ति जाग्रत हुई, जिसने आध्यात्मिक शक्ति के द्वार ही बंद कर दिये। आज तक तप-संयम से अर्जित आत्म-शक्ति के बदले में तामस-शक्ति माँगने की लिप्सा जागी। मन में कुसंकल्प (नियाणा) किया-“आज तो मैं इस शरीर से अपने शत्रु विशाखनन्दी को मार नहीं सकूँगा। किन्तु अनेक वर्षों से किये हुए तप, संयम से अर्जित पुण्य राशि के फलस्वरूप मुझे ऐसी प्रचण्ड शक्ति प्राप्त हो, ताकि मैं विशाखनन्दी को मार सकूँ।" बस, कर लिया नियाणा (निदान) ! वर्षों से रत्नत्रय की एवं तप, संयम की साधना से अर्जित एवं जाग्रत की हुई अमूल्य पवित्र आत्म-शक्ति को कौड़ी के भाव में लुटा दी। की हुई रत्नत्रय की आराधना और तप-संयम की करणी से उपलब्ध एवं अभिव्यक्त आत्म-शक्ति का नीलाम कर दिया।
वास्तव में, विश्वभूति मुनि को आत्म-शक्तियों के जागरण, प्रकटीकरण एवं उत्तरोत्तर संवर्धन करने का सुन्दर अवसर मिला था, किन्तु आत्म-शक्ति जाग्रत होने के साथ-साथ उन पर किसी मार्गदर्शक को अंकुश या अनुशासन न रहा। इसलिए उन्होंने सारी आत्म-शक्ति विवेकमूढ़-मोहमूढ़ होकर नष्ट-भ्रष्ट कर दी, विपरीत दिशा में अपनी शक्ति नियोजित कर दी, खर्च कर दी। फलतः उनको जो सम्यग्दर्शन की ज्योति जाग्रत हुई थी, वह भी बुझ गई। सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र की शक्तियों का भी सर्वनाश हो गया। * · विशाखनन्दी ने जब विश्वभूति का उपहास किया, तब उन शब्दों को सुनकर कषायभाव न लाते; मन पर प्रतिक्रिया न होती, उन्हें समभाव से सहन करके आत्म-भाव में लीन रहते तो उनकी आत्म-शक्ति और बढ़ जाती। परन्तु जीवन में ज़ब सर्वनाश के क्षण आते हैं, तब सारा पासा पलट जाता है। जरा-सी शब्दों की असहिष्णुता के कारण वे छठे-सातवें गुणस्थान से सहसा प्रथम (मिथ्यात्व) गुणस्थान में आ गए। उनकी अनन्त शक्तिमान् आत्मा ने तन-मन-प्राणों के भयंकर से भयंकर कष्ट सहे थे; इसी प्रकार इस अवसर पर भी वे यही सोचते कि मैं अनन्त शक्तिमान् आत्मा हूँ, ये जड़ शब्द मेरा क्या कर सकते हैं ? आत्म-शक्तियों का साधक यदि एक बार ही दृढ़ निश्चय कर ले कि परमात्मा के समान ही अनन्त आत्म-शक्ति मेरा स्वभाव है। बाहर की कोई भी शक्ति, फिर वह चाहे सत्ता की हो, सम्पत्ति की हो, या अहंकार, क्रोध आदि की आसुरी शक्ति हो, उस पर प्रभाव नहीं डाल सकती, हावी नहीं हो सकती।'
१. देखें-त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र में विश्वभूति मुनि का वृत्तान्त
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