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* परमात्मभाव का मूलाधार : अनन्त शक्ति की अभिव्यक्ति * २३३ *
के माध्यम से पण्डितवीर्य (आत्मिक-शक्ति) का व्यावहारिक आदर्श प्रस्तुत करते हुए कहा गया है-सुव्रती साधक उदर-निर्वाह के लिए अल्पतम आहार, अल्प पानी, अल्प निद्रा, अल्प भाषण, अल्प उपकरण एवं साधन से जीवन-निर्वाह करे। वह सदैव क्षमाशील या कष्ट-सहिष्णु, लोभादि से रहित, शान्त, दान्त (जितेन्द्रिय) एवं विषयभोगों के प्रति अनासक्त रहकर सभी प्रवृत्तियों में सदा यतना करे (उपयोगसहित प्रवृत्ति करे) अथवा संयम-पालन में यत्न (पुरुषार्थ) करे। इसी प्रकार वह पण्डितवीर्य साधक ध्यानयोग को सम्यक् प्रकार से ग्रहण करके काया का पूर्णतया व्युत्सर्ग करे। (अनिष्ट प्रवृत्तियों से तन-मन-वचन को रोके) तथा परीषह और उपसर्ग के सहनरूप तितिक्षा को प्रधान (सर्वोत्कृष्ट) साधना समझकर मोक्षपर्यन्त संयम-पालन में पराक्रम करे।।
इन गाथाओं का फलितार्थ यह है कि साधक मन-वचन-काया की शक्ति को अनुचित, अनावश्यक एवं हिंसादियुक्त प्रवृत्तियों में लगाता है तो पण्डितवीर्य की साधना के बदले बालवीर्य की साधना में शक्ति लगाता है। जैसे-मन की शक्ति को वह विषयभोगों की प्राप्ति के चिन्तन, कषाय या राग-द्वेष-मोह आदि में या आत-रौद्रध्यान में लगा देता है। इसी प्रकार वचन की शक्ति को कर्कश, कठोर, हिंसाजनक, पीडाकारक, सावद्य (पापमय), निरर्थक, असत्य या कपटमय वाणी बोलने में लगाता है। तथैव काया को भी केवल पुष्ट करने, खाने-पीने, सोने, सजाने-सँवारने तथा अभक्ष्य-अपेय आहार-पानी, वस्त्र, पात्र, मकान या अन्य साधनों आदि पदार्थों के अधिकाधिक उपभोग में लगाता है, तो वह अपनी शक्ति बालवीर्य में लगाता है। वह अपनी मन-वचन-काया की शक्ति का अपव्यय करता है। इसलिए शास्त्रकार ने तीन गाथाओं द्वारा त्याग-तप-प्रधान पण्डितवीर्य की मोक्षलक्ष्यी साधना का व्यावहारिक आदर्श प्रस्तुत किया है। . श्वासोच्छ्वासबलप्राण द्वारा आत्म-शक्ति (पण्डितवीर्य) का
विकास और जागरण कैसे हो ? इसी प्रकार श्वासोच्छ्वास का बल भी सर्वविदित है। जैसे-लुहार अपनी धौंकनी से अग्नि को अधिकाधिक प्रज्वलित करता है, वैसे ही श्वासोच्छवास की क्रियाओं के माध्यम से व्यक्ति तैजस-शक्ति, ओजस्-शक्ति एवं प्राण-शक्ति को प्रदीप्त, संवर्द्धित एवं जाग्रत कर सकता है। प्राणायाम के विविध प्रयोगों द्वारा
१. अप्पपिंडासि पाणासि, अप्पं भासेज्ज सुव्यते।
खंतेऽभिनिव्वुडे दंते, वीतगेही सदा जते॥२५॥ . झाणजोगं समाहट्ट, कायं विउसेज्ज सव्वसो। तितिक्खं परमं णच्चा, आमोक्खाए परिव्वएज्जासि॥२६॥
-सूत्रकृतांकसूत्र, श्रु. १, अ. ८, गा. २५-२६
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