________________
* २३२ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
सकता है। क्षीरानव-लब्धि, पदानुसारिणी-लब्धि, वचन-सिद्धि आदि भी वचनबल के विकसित रूप हैं। वाणी की शक्ति दीर्घकालीन साधना से जाग्रत और विकसित होती है। शब्द-शक्ति के प्रभाव से हजारों कोस दूर बैठे हुए व्यक्ति को प्रभावित, आकर्षित और आमन्त्रित किया जा सकता है। सम्मोहन-शक्ति से, प्रार्थना से तथा मंत्र-तंत्र-यंत्र शक्ति से तीव्र शुभ भावना से दूर बैठे हुए व्यक्ति को रोग, शोक, चिन्ता, भय आदि से मुक्त किया जा सकता है। संगीत से एवं प्रार्थना आदि प्रयोगों से रोग-मुक्ति, गोदुग्ध-वृद्धि, खेतों में उत्पादन-वृद्धि आदि में आशातीत सफलता मिलती है। उसी शब्द-शक्ति के प्रभाव से आत्म-गुणों को, आत्म-स्वभाव को जाग्रत करने का स्वयं-संकेतात्मक (ओटो सजेशन के रूप में) अभ्यास किया जाए तो आत्म-शक्तियाँ जाग्रत, संवर्द्धित और विकसित की जा सकती हैं। कायबलप्राण द्वारा पण्डितवीर्य का प्रकटीकरण कैसे हो ?
तीसरा है-कायबलप्राण। कायबल भी कायगुप्ति, कायक्लेश तप, प्रतिसंलीनता तप तथा उपवास आदि तप से एवं योगासन, व्यायाम तथा शास्त्रोक्त आसनों और यौगिक क्रियाओं आदि से तथा गमनागमन, शयन-जागरण, बैठना-उठना, भिक्षाचरी, आहार-विहार आदि कायिक प्रवृत्तियों और चेष्टाओं से, सेवा-शुश्रूषा, परिचर्या आदि में विवेक और यत्नाचार से बढ़ता है। शरीर में तीन प्रमुख शक्ति केन्द्र हैं-नाभि, गुदा और फेफड़े। इन तीनों शक्ति केन्द्रों को जगाने से आत्म-शक्ति-संवर्द्धन में सहायता मिलती है। मनोबल के साथ भी कायबल का गहरा सम्बन्ध है। परीषहों और उपसर्गों को समभावपूर्वक सहने का, कष्ट-सहिष्णुता का, तितिक्षा का एवं पाँचों इन्द्रियों का विषयों में अतिप्रवत्त होने से या निरर्थक प्रवृत्ति करने से, आस्रवों में जाने से रोकने का मनोबलपूर्वक कायबल से अभ्यास किया जाए तो आत्म-शक्तियाँ अतिशीघ्र जाग्रत हो सकती हैं। पंचेन्द्रियबलप्राण, श्वासोच्छ्वासबलप्राण और आयुष्यबलप्राण द्वारा आत्म-शक्ति का विकास कैसे हो ?
पाँचों इन्द्रियों की शक्ति भी अभ्यास से, आनवों (पापासवों) की ओर जाने से रोकने से, योगसाधना से बढ़ सकती है। दूर तक श्रवण करने की, देखने की, शीघ्र पढ़ने की, स्पर्श के द्वारा दूसरी इन्द्रियों के विषयों का ज्ञान करने की शक्ति भी अभ्यास से हो सकती है। इन्द्रियों पर संयम, विषयों के प्रति राग-द्वेष आदि विभावों के निरोध, यतनापूर्वक यथावश्यक इन्द्रिय-विषयों का सहजभाव से अल्पतम उपयोग, यलाचार आदि से इन्द्रिय-शक्तियाँ बढ़ती हैं, उनका उपयोग आत्म-स्वभावरमण में, स्थिरता में हो सकता है। इन्हीं पूर्वोक्त तथ्यों को मद्देनजर रखते हुए ‘सूत्रकृतांगसूत्र' में मन, वचन, काया, इन्द्रियों, बुद्धि आदि की शक्तियों
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org