________________
* २३६ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
अधिक होने से वीर्य में स्थिरता नहीं होती। मन-वचन-काया के योगों की चंचलता . इनकी अधिकाधिक प्रवृत्ति करने से होती है। अतः इन योगों तथा इन्द्रियों की प्रवृत्तियों को जितना अधिक रोका जाएगा, एक भी अनावश्यक, निरर्थक या सावद्य प्रवृत्ति नहीं की जाएगी; ध्यान, धारणा, समाधि आदि के द्वारा या ज्ञाता-द्रष्टा-साक्षी बनकर रहने से उत्तरोत्तर उतनी ही आत्म-शक्ति (पण्डितवीर्य) जाग्रत, संवर्द्धित होती जाएगी और त्यों-त्यों वीर्यान्तराय कर्म का क्षय या क्षयोपशम होता जाएगा तथा आत्म-वीर्य में स्थिरता होती जाएगी। अन्त में शैलेशीकरण (१४वें गुणस्थान) के समय आत्मा में मन-वचन-काया के योगों की चंचलता बिलकुल नहीं रहती। वीर्यान्तराय कर्म का सर्वथा क्षय तो पहले (१३वें गुणस्थान में) ही हो जाता है। उससे आत्मा में पूर्ण रूप से उत्कृष्ट वीर्य (आत्म-शक्ति) प्रकट और जाग्रत हो जाता है। ऐसी स्थिति में मन-वचन-काया के योगों की प्रवृत्ति आत्मा पर कोई प्रभाव डाल नहीं सकती। और जब योगत्रय छूट जाते हैं, तब शारीरादि व कर्मादि पुद्गल और आत्मा दोनों सदा के लिए पृथक् हो जाते हैं। आत्मा परमात्मा के समान अनन्त ज्ञान-दर्शन और आत्मिक-सुख की शक्तियों (अनन्त वीर्य = शक्तियों) से परिपूर्ण, अयोगी, अक्रिय, अलेश्यी, स्वतंत्र, कृतकृत्य सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाती है। उस समय वह शुद्ध-बुद्ध-मुक्त आत्मा, पूर्ण, परमात्मा बनकर, पूर्ण वीरता (अनन्त आत्म-शक्ति) के साथ अपने शुद्ध स्वभाव का भोक्ता बना रहता है। अनभिव्यक्त, अजाग्रत आत्म-शक्ति को परमात्म-शक्ति के रूप में अभिव्यक्त और जाग्रत करने की यही सर्वश्रेष्ठ प्रक्रिया है।'
१. 'पानी में मीन पियासी' से भाव ग्रहण, पृ. ४७७-४७८
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org