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* परमात्मभाव का मूलाधार : अनन्त शक्ति की अभिव्यक्ति * २१३ *
आत्म-शक्तियाँ कहाँ लगनी चाहिए थीं, कहाँ लग रही हैं ? मनुष्य की आत्म-शक्तियाँ अपनी आत्मा पर लगे हुए बँधे हुए या नये आते हुए कर्मों का निर्जरा और संवर द्वारा क्षय और निरोध करने में तथा परभावों और विभावों से हटकर स्वभाव, स्व-स्वरूप और निज गुणों में रमण करने तथा स्थिर रहने में लगनी चाहिए थी, उसके बदले वह लग रही है, पुराने कर्मों के उदय में आने पर समभाव से न भोगकर विषयभाव से भोगने में, हिंसा आदि आस्रवों तथा कषाय-नोकषाय, राग-द्वेष आदि विभावों को ज्ञानबल से रोककर संवर करने के बजाय उन आसवों और विभावों को बढ़ाने में लग रही है। उस विवेकमूढ़ को इसका भान भी नहीं रहता कि मुझे अपनी शक्ति कहाँ लगानी चाहिए और कहाँ लगा रहा हूँ ? जिस प्रकार एक मतवाला साँड़ घूरे को बिखेरकर उसकी इधर-उधर फेंकी हुई धूल, राख एवं निष्ठा आदि कूड़े-कर्कट को अपने ही मस्तक पर उछाले और बार-बार गंदगी के ढेर में सिर मारकर डकारे और यह माने कि मैंने कितनी शक्ति लगाकर इस कूड़े के ढेर को तोड़ा-फोड़ा और बिखेर दिया। इसी प्रकार अज्ञानी जीव भी येन-केन-प्रकारेण धन कमाने, सुख-साधन जुटाने तथा दूसरों को सताने, मारने-पीटने, दबाने, हत्या, दंगा, आतंक, आगजनी, बमबारी आदि करने तथा सत्ता, पद, प्रतिष्ठा एवं अधिकार की प्राप्ति के लिए उखाड़-पछाड़ करने, अनैतिकता एवं भ्रष्टाचारिता से सत्ता आदि हासिल करने तथा उठापटक करने में अपनी शक्तियाँ लगाता है फिर अज्ञानतावश संसार की विषय-वासना की गंदगी के घूरे को उछालने, विविध प्रकार के कामभोगों का आसक्तिपूर्वक उपभोग करने में अपनी पूरी शक्ति लगा देता है। तत्पश्चात् मिथ्याभिमानवश डींग हाँकता है कि मैंने कार, कोठी, बंगला, बगीचा आदि सुख के साधन जुटाए, मैंने लाखों-करोड़ों कमाए, लड़के-लड़कियों के विवाह में लाखों रुपये खर्च किये, इतनी बड़ी रकम मैंने अमुक-अमुक संस्था को दी। मेरी प्रसिद्धि, · प्रशंसा एवं प्रतिष्ठा चारों ओर फैल रही है। किन्तु ऐसा करने से आत्म-कल्याण का, आत्म-शक्तियों के जागरण का कुछ भी तत्त्व हाथ नहीं आया। दुष्कर्मरूपी धूल, गंदगी और राग-द्वेष-कषायादि का कीचड़ ही अपने सिर पर लगाता है। ऐसा करने से अपनी आत्मा में निहित ज्ञानादि आत्मिक-शक्तियों का ह्रास ही होता है, विकास नहीं; हानि ही होती है, लाभ नहीं; कर्मबन्ध ही होता है, कर्मक्षय नहीं। ऐसे विवेकमूढ़ लोगों को देखकर कविवर बनारसीदास जी का वह सवैया याद आ जाता है
"ज्यों मतिहीन विवेक बिना नर, साजि मतंगज ईंधन ढोवै। कांचन-भाजन धूल भरे शठ, मूढ़ सुधारस-सों पग धोवै॥ बाहिन काग उड़ावन कारण, डार महामणि मरख रोवै। त्यों यह दुर्लभ देह 'बनारसी', पाप अज्ञान अकारथ खोवै॥"
१. बनारसी-विलास (कविवर पं. बनारसीदास जी) से उद्धृत
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