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परमात्मपद-प्राप्ति का मूलाधार :
आत्म-स्वभाव में स्थिरता
परभाव में रमण से कर्मबन्ध और स्वभाव में रमण से कर्ममुक्ति
कर्मविज्ञान की दृष्टि से जब हम आत्मा को परमात्मभाव = शुद्ध आत्म-स्वभाव से बहुत दूर हटकर परभाव और विभाव के प्रवाह में बहता देखते हैं तो कर्मक्षय के बदले कर्मबन्ध ही अधिकाधिक बढ़ना निश्चित है। यह कर्मबन्ध तभी रुक सकता है, जब हम परभाव और विभाव से मुड़कर स्वभाव में आ जाएँ, स्वभाव के विषय में अधिकाधिक चिन्तन, मनन, रमण करने अथवा आत्मा में, आत्म-स्वभाव में या आत्म-स्वरूप में स्थिर होने का पुरुषार्थ करें। ऐसा करने से स्वभाव स्थितिरूप मोक्ष निश्चित है। आत्मा और परमात्मा के स्वभाव में बहुत अन्तर .
प्रश्न होता है-कहाँ आत्मा का स्वभाव और कहाँ परमात्म-स्वभाव? दोनों में आकाश-पाताल का अन्तर है। दोनों के स्वभाव में, गुणधर्म में, स्व-स्वधर्म में अन्तर है, तब कैसे आत्म-स्वभाव में जीव (आत्मा) स्थिर हो? व्यवहारदृष्टि से परमात्मा और आत्मा का स्वभाव भिन्न-भिन्न, किन्तु निश्चयदृष्टि से समान ___ वास्तव में व्यवहारदृष्टि या पर्यायदृष्टि से सोचें तो आत्मा और परमात्मा दोनों का स्वभाव पृथक्-पृथक् दृष्टिगोचर होता है। सामान्य आत्मा मनुष्य, विशेषतः श्रावक वर्ग और साधु वर्ग, इन सब का आचार-व्यवहार, व्रतनियम, प्रकृति, मनःस्थिति आदि को देखते हुए मालूम होता है कि ये संसारापन्न मानव कर्मों के आवरण से दबे हुए परभावों और विभावों में लिपटे हुए हैं। निश्चयदृष्टि से तो आत्मा और परमात्मा-दूसरे शब्दों में व्यवहार से वर्तमान में कर्मलिप्त आत्मा का और सर्वकर्ममुक्त परमात्मा का मूल स्वभाव और गुणधर्म एक समान हैं। उसमें रत्तीभर भी अन्तर नहीं है। दोनों का मूल स्वभाव, निज गुणधर्म या स्वरूप सदृश होने के कारण ही कहा जाता है-"अप्पा सो परमप्पा।"-आत्मा ही परमात्मा है
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