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* चतुर्गुणात्मक स्वभाव-स्थितिरूप परमात्मपद-प्राप्ति * १९७ *
सब तरह से धन-वैभवादि समृद्ध होते हुए भी अन्तर में
व्याकुलता के कारण मनुष्य दुःखी होता है अज्ञानीजन बाह्य संयोगों को लेकर सुख-दुःख की कल्पना करते हैं, परन्तु यह निरा भ्रम है। किसी व्यक्ति के पास लाखों रुपये हों, कार, कोठी, बगीचा हो, शरीर भी स्वस्थ हो, किन्तु परिवार में अनबन रहती हो, अपना अपमान होता हो, भाई-भाई में परस्पर कलह हो गया हो, पत्नी-पुत्र आज्ञाकारी न हों, तो धन-वैभव आदि का संयोग होते हुए भी, व्याकुलता आदि के कारण अन्तर में दुःख की आग भभकती हो तो वह दुःखी ही कहलाएगा, कौन उसे सुखी मानेगा?
स्वभावनिष्ठ सम्यग्दृष्टि जीव बाह्य संयोगों से
सुखी-दुःखी नहीं होता अतः स्वभावनिष्ठ सम्यग्दृष्टि आत्मा बाह्य संयोगों में सुख-दुःख की कल्पना छोड़कर अपने ज्ञानानन्द (आत्मिक-सुख) स्वभाव को देखता है। वह न तो बाह्य सुखों-सुख-साधनों या संयोगों से स्वयं को सुखी मानता है और न बाह्य प्रतिकूलताओं के संयोग में भी स्वयं को दुःखी समझता है। उसका यह दृढ़ विश्वास होता है कि आत्मा में ही सुख है, बाह्य वस्तुओं में नहीं। अज्ञानीजन आत्म-सुख से, आत्मिक-सुख से या आत्मिक-स्वभाव से अनभिज्ञ तथा उसमें अस्थिर होकर-यह मकान सुखदायक है, सभी पुत्रादि अच्छे हैं, समाज में सम्मान-प्रतिष्ठा भी अच्छी है इत्यादि कल्पना करके परनिमित्त से प्राप्त या पुण्यकर्मजनित सुख को सुख मान लेते हैं, किन्तु उनमें मोह-ममत्व, राग-द्वेष आदि के कारण आगे चलकर जब कुछ आकुलता, बेचैनी बढ़ती है, तब उन्हें असलियत मालूम होती है।
__ आत्मार्थी पर-पदार्थों से सुख नहीं चाहता ... सम्यग्दृष्टि आत्मार्थी यह मानता है कि पर-वस्तु में सुख मानकर, उसके काल्पनिक क्षणिकं सुख पाने के लिए पराश्रित बनना भिखारीवृत्ति है। वह इस भिखारीवृत्ति से दूर रहता है। वह सोचता है-मैं अखण्ड ज्ञानानन्दस्वरूप आत्मा हूँ। मुझे पर-पदार्थों से सुख नहीं चाहिए। मेरा सुख मेरे (मेरी आत्मा) में है। इस प्रकार आत्मानन्द की मस्ती में जो रहता है, वह शाहंशाह है। वह भगवान से, देवी-देव से या किसी शक्ति से अथवा किसी धनाधीश या सत्ताधीश से सुख की याचना नहीं करता। परमात्मा अनन्त आत्मिक सुख-सम्पन्न है, उनसे कदाचित् भक्ति की भाषा में वह प्रार्थना करता है-भगवन् ! मैं आत्मिक सुख-स्वभाव में स्थिर रह सकूँ, अपने ज्ञानानन्द में निश्चल रह सकूँ ऐसी शक्ति प्राप्त हो, क्योंकि परमात्मा उस अनन्त आत्मिक आनन्द की मंजिल को प्राप्त कर चुके हैं। जो अपने अखण्ड आत्मिक आनन्द में सतत रमण करते हैं, वे ही उस आत्मानन्द की प्रेरणा कर सकते हैं।
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