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* चतुर्गुणात्मक स्वभाव-स्थितिरूप परमात्मपद-प्राप्ति * १८३ *
व्यक्ति को आत्मा के ज्ञानादि स्वभाव या शुद्ध स्वरूप का बिलकुल पता नहीं होता। किन्तु जो आत्मा को शुद्ध ज्ञानादि स्वभाव का ज्ञाता-द्रष्टा तथा आत्मा को मूल रूप में शुद्ध सहज ज्ञानानन्द स्वभावी, ज्ञायकस्वरूप जानता-मानता है, वह स्वयं कर्मों के संयोग से आच्छादित रागादि मलिन आत्मा को अपने भेदविज्ञानरूपी फिटकरी या निर्मली से पृथक् करके उसके शुद्ध ज्ञान-स्वभाव में स्थिर करता है, उसी में रमण करता है।
सम्यग्ज्ञान (ज्ञान) और मिथ्याज्ञान (अज्ञान) में अन्तर कई बार दिङ्मूढ़ साधक सम्यग्ज्ञान के नाम पर अज्ञान-मिथ्याज्ञान को ही ज्ञान समझने लगता है और मूढ़तावश तदनुसार प्रवृत्ति करने लगता है, अतः मुमुक्षु साधक को सर्वप्रथम सम्यग्ज्ञान (ज्ञान) और मिथ्याज्ञान (अज्ञान) का सम्यक् विवेक करना अनिवार्य है, तभी वह आत्मा के शुद्ध ज्ञान-स्वभाव में स्थिर रह सकता है। अज्ञान का मतलब 'न जानना' नहीं है, किन्तु जानने के साथ राग-द्वेष, मोह-मद, अहंकार-ममकार, प्रियता-अप्रियता आदि विकारों का जुड़ जाना है। ज्ञान-स्वभाव में स्थिर-लीन रहने का अर्थ है-जो वस्तु जैसी है, उसे उसी रूप में जानना, उसमें अपनी मान्यता या अपनी वृत्ति के अनुसार किसी प्रकार की, राग-द्वेष की, अच्छे-बुरे की, अनुकूल-प्रतिकूल की, मनोज्ञ-अमनोज्ञ की मिलावट न करना जानना-केवल जानना रहे-कोरा ज्ञान रहे, उसके साथ किसी विभाव या विकार का मिश्रण न होना (सम्यक) ज्ञान है। 'योगसार' में इसी तथ्य को अभिव्यक्त किया गया है-“जो वस्तु जैसी है, उसका वैसा ही परिज्ञान होनासत्यबोध होना-ज्ञान (सम्यग्ज्ञान) है। किन्तु ज्ञान के साथ जब राग-द्वेष, मद, क्रोध आदि विकार (विभाव) जुड़ जाते हैं, तब वह निखालिस ज्ञान न रहकर संवेदन (अज्ञानभाव का वेदन) बन जाता है।"
ज्ञान-स्वभाव में स्थिर रहने वाले व्यक्ति की वृत्ति-प्रवृत्ति . . ज्ञान-स्वभाव में स्थिर रहने का अभ्यासी मुमुक्षु साधक पर-वस्तुओं के वस्तु-स्वरूप का ज्ञान करता है, किन्तु ज्ञाता, द्रष्टा, साक्षी या तटस्थ बनकर रहता है। घटना घटित हो रही है, उसमें वह अपने आप को लिप्त नहीं करता, प्रियता-अप्रियता का भाव नहीं लाता। वह अपने आप को उससे पृथक् रखता है। वह केवल उस घटना को जानता-देखता है और कुछ भाव उसके साथ नहीं जोड़ता।
जगत के चेतन-अचेतन पदार्थों की जो जानकारी विभावदशा (क्रोधमानादि कषाय या रागादि विकार) की ओर घसीट ले जाती हो, वह जानकारी अज्ञान है।
. १. यथावस्तु परिज्ञानं, ज्ञानं ज्ञानिभिरुच्यते।
राग-द्वेष-मद-क्रोधैः सहितं वेदनं पुनः॥
-योगसार
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