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* १५२ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
अतएव आत्मा के शुद्ध स्वरूप या स्वभाव का निर्णय भी इन्द्रियों से या मन के राग-द्वेषादि वैभाविक संकल्प-विकल्पों से नहीं होता, अपितु वह होता है-ज्ञान को अन्तर में स्थित करने पर स्वभाव का स्पर्श होते ही। तब ऐसी निश्चित प्रतीति हो जाती है कि सिद्ध-परमात्मा का जो स्वभाव या स्वरूप है, वही मेरा स्वभाव या स्वरूप है। भूल या अशुद्धता अथवा रागादिजनित या कर्मोपाधिक पर्याय मेरा स्वभाव या स्वरूप नहीं है, वे सब औपाधिक (अशुद्ध पर्याय) हैं। आत्मार्थी मुमुक्षु साधक की दृष्टि अशुद्धता या औपाधिक अशुद्ध पर्यायों की ओर नहीं जाती। उसकी दृष्टि अशुद्धिरहित शुद्ध आत्म-भाव को ही देखती है। इस प्रकार पूर्ण शुद्ध आत्म-स्वभाव का स्वीकार तथा परभावों और विभावों का अस्वीकार करके ही उसमें स्थिर होकर अनन्त जीव परमात्मरूप सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुए हैं।
उष्ण जल के मूल शीतल स्वभाव का निर्णय करते समय तत्काल उसकी शीतलता का वेदन (अनुभव) हो या न हो, किन्तु आत्मा के शुद्ध स्वभाव का निर्णय करते समय अन्तर में तत्क्षण उसकी शुद्धता के अंश का आनन्द सहित वेदन (अनुभव) अवश्य होता है। जब तक साधक को ऐसा वेदन नहीं होता, तब तक आत्मा के शुद्ध स्वभाव का निर्णय नहीं कहलाता। जैसे सुई में डोरा पिरोने पर वह कहीं गुम नहीं होती और तभी वह कपड़ों को सीं सकती है, जोड़ भी सकती है; इसी प्रकार आत्म-स्वभावतारूपी सुई को निश्चित निर्णय (ज्ञान) रूपी डोरे में पिरो लेने पर वह इधर-उधर परभावों या विभावों में स्वयं गुम नहीं होती, बल्कि वह अपने में आत्म-गुणों को जोड़ने का ही उपक्रम करती है। स्वभाव के निर्णयकर्ता को पर-पदार्थों या विभावों से कोई आशा-आकांक्षा नहीं रहती
जिसे स्वभाव का निश्चित निर्णय (अनुभव ज्ञान) हो जाता है, उसे अन्य सजीव-निर्जीव पर-पदार्थों की अथवा पुण्यादिजनित प्रशंसा, प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा या स्वार्थलिप्सा आदि की कामना, आशा, आकांक्षा या स्पृहा नहीं रहती, क्योंकि वह भलीभाँति समझ लेता है कि पर-पदार्थों या पुण्यादिजनित परभावों या रागादि विभावों से कल्याण की, हिताहित की आशा या आकांक्षा करना भिखारीपन है। पर-पदार्थों से जब तक किसी प्रकार की कामना या आकांक्षा का मन में अंश है, कहना चाहिए-तब तक वह स्वभाव का सच्चा निर्णायक नहीं हुआ। कोई भी समझदार व्यक्ति दूसरे के घर की लक्ष्मी को अपनी नहीं मानता, न ही उसे मुफ्त में लेने की इच्छा या लालसा करता है; वैसे ही स्वभावनिष्ठ व्यक्ति परभावरूपी पुण्य-पाप की लक्ष्मी को अपनी नहीं मानता और न उसे लेने या स्वीकारने की इच्छा करता है।'
१. पानी में मीन पियासी' से भाव ग्रहण, पृ. ४०८
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