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* १८० * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
रहकर ही होता है। स्वच्छ दर्पण में पर-पदार्थ जैसा होता है, वैसा स्पष्ट झलकता है, किन्तु उसमें पर-वस्तु का अवलम्बन नहीं होता। चूँकि ज्ञान स्व-पर-प्रकाशक होता है। वह अपना भी ज्ञान करता है और शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श इत्यादि पर - पदार्थोंका भी ज्ञान करता है, किन्तु करता है, स्वयं के उपादान के आधार पर ही । यदि ऐसा माना जाए कि सिद्ध- परमात्मा में शुभ भावों के आधार से अनन्त ज्ञान अभिव्यक्त या विकसित होता है, तब तो ज्ञानादि से परिपूर्ण होने के पश्चात् वह ज्ञान टिक नहीं सकेगा, क्योंकि सिद्ध- परमात्मा में रागादि भावों का सर्वथा अभाव है। यदि रागादि भावों या इन्द्रियों के आधार से ज्ञान होता है, ऐसा मानें तो सिद्ध-परमात्मदशा में रागादि या इन्द्रियों का सर्वथा अभाव होने से सिद्ध-परमात्मा में ज्ञान का भी अभाव हो जाएगा। अतः जो जीव रागादि विकारों या इन्द्रियों के. आधार से ज्ञान मानता है, वह परिपूर्ण ज्ञानी सिद्ध- परमात्मा को अथवा उनके ज्ञान-स्वभाव को समझा ही नहीं है । ऐसा व्यक्ति अपने अनादि-अनन्त ज्ञानादि आत्म-स्वभाव की ओर मुड़ नहीं सकता । अतः सिद्ध-परमात्मा में या सामान्य आत्मा में जो परिपूर्ण अनन्त (केवल) ज्ञान अभिव्यक्त, प्रादुर्भूत, प्रकट या अनावृत होता है, वह आत्मा के अनादि-अनन्त ज्ञान - स्वभाव के आधार से ही होता है, अनन्त ज्ञान के प्रकट होने में उपादान तो स्वयं का आत्म-ज्ञान ही है।
छद्मस्थ मुमुक्षु साधक की ज्ञान - स्वभाव में स्थिरता और अखण्डता कैसे रहे ?
जैन - सिद्धान्त की दृष्टि से जब तक साधक तेरहवें गुणस्थान तक नहीं पहुँचता, तब तक अखण्ड ज्ञानदशा के परिणामों की धारा में उतार-चढ़ाव होता रहता है, ज्ञान-स्वभाव में पूर्ण स्थिरता और अखण्डता नहीं रहती । फिर भी अपने ज्ञान-स्वभाव में स्थिर रहने वाले छद्मस्थ साधक की द्रव्यदृष्टि या स्वभावदृष्टि कायम रहती है। पर्याय में अल्पज्ञता (छद्मस्थता) और राग-द्वेष होने पर भी वह उसका आदर नहीं करता। वर्तमान में वह पूर्ण वस्तु-स्वभाव के सम्मुख रहता है, वस्तु-स्वभाव में परिणमन करता है। वर्तमान में उसके पूर्ण केवलज्ञान-पर्याय न होते हुए भी जिन्हें पूर्ण केवलज्ञान - दशा प्रकट हुई है, उनके पूर्ण ज्ञानमय स्वभाव को वह स्वीकार करता है। पर-पदार्थों को सामने देखकर उनके आधार से पूर्ण ज्ञान का स्वीकार वास्तव में नहीं हो सकता । पूर्ण ज्ञान का आधाररूप जो आत्म-गुणआत्म-स्वभाव-ज्ञान-स्वभाव है, उसके अभिमुख हुए बिना पूर्ण (केवल ) ज्ञान को स्वीकारा नहीं जा सकता। ध्रुव-स्वभाव के सम्मुख होकर अपने में अंशतः अतीन्द्रिय ज्ञान प्रकट करने पर ही पूर्ण अतीन्द्रिय केवलज्ञान का स्वीकार होता है और तभी जीव सिद्ध-परमात्मा के स्वभाव- सम्मुख हो पाता है और स्वल्पकाल में ही स्वयं सिद्ध-परमात्मा बन जाता है।
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