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* १६२ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
संस्कार चलचित्र की तरह मानस-पटल पर स्वप्न के रूप में उभरने लगते हैं। कभी-कभी यह स्वप्न काफी लम्बे समय तक चलता है। मगर कितने ही लम्बे समय का-कुम्भकर्णी निद्रा के अनुसार छह महीने का या करोड़ वर्ष का ही क्यों न हो, नींद टूटते ही, मानव के जाग्रत होते ही, वह स्वप्न एकदम गायब हो जाता है। - तात्पर्य यह है कि स्वप्न दीर्घकालिक हो या अल्पकालिक, मनुष्य के जाग्रत होते ही उस स्वप्न को समाप्त होने में एक क्षण का भी समय नहीं लगता। यह हम सब का ठोस अनुभव है कि नींद उड़ते ही स्वप्न उड़ (लुप्त हो) जाता है। इसी प्रकार यह जीव जो अनादिकाल से विभाव में भ्रमवश पड़ा था; भ्रमवश आत्मा में जड़ जमाए' बैठा था, आत्मा को स्व-स्वभाव का ज्ञान-भान जाग्रत होते ही भ्रम भंग हो जाता है ।
और भ्रम भंग होते ही विभाव भी पलभर में नष्ट हो जाता है। ___ अज्ञान, मोह और मिथ्यात्व ही भ्रम हैं। जीव को दो प्रकार के भ्रम होते हैंएक तो जो सजीव-निर्जीव पदार्थ अपने नहीं हैं, पर हैं, उनमें मेरेपन की बुद्धि। दूसरा भ्रम है-पर-पदार्थों और व्यक्तियों में अपने सुख की कल्पना करना। ये दोनों प्रमुख भ्रम दूर हो जाएँ, ज्ञानदृष्टि खुल जाए तो वर्षों से जड़ जमाए हुए विभाव क्षणभर में दूर हो जाते हैं। आत्मा सम्यग्ज्ञान के प्रकाश में स्व-स्वभाव में परिणत होने लगती है और फिर धीरे-धीरे सुदृढ़ रूप से स्व-स्वभाव में स्थिर होते ही वह परमात्मपद को प्राप्त हो जाती है।' स्वभाव में स्थिर होने का अर्थ : अपने ज्ञान में स्थिर होना
अपने (आत्मा के) ज्ञानमय स्वभाव में स्थिर रहना ही स्वभाव में स्थिर रहना है, क्योंकि आत्मा और ज्ञान दोनों भिन्न नहीं हैं। केवल कहने के लिये भिन्न हैं, परन्तु वास्तव में निश्चयदृष्टि से दोनों अभिन्न हैं। 'आचारांगसूत्र' में इसी तथ्य को स्पष्ट किया गया है
“जे आया से विण्णाया, जे विण्णाया से आया। जेण विजाणाति से आया।" ___ -जो आत्मा है, वह विज्ञाता (ज्ञानमय) है, जो विज्ञाता है, वह आत्मा है। जिससे जाना जाता है, वह आत्मा है।
आशय यह है कि किसी भी पदार्थ, परिस्थिति या व्यक्ति के साथ सम्पर्क चाहे इन्द्रियों से हो या मन से हो, आदमी उस पदार्थ, परिस्थिति या व्यक्ति का ज्ञान करना और उसे जानने तक ही सीमित रखना-अपने ज्ञानमय स्वभाव में स्थित रहता है। इससे आगे बढ़कर कोई संवेदनात्मक सम्बन्ध स्थापित कर लेता है, तब वह स्वभाव से हटकर विभावात्मक परभाव में बह जाता है। ज्ञान की निर्मल धारा
१. (क) 'पानी में मीन पियासी' से भाव ग्रहण, पृ. ४२२
(a) आत्ममिटि गा.११४
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