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* विशिष्ट अरिहन्त तीर्थंकर : स्वरूप, विशेषता, प्राप्ति-हेतु * ९५ *
जैनधर्म ईश्वरकर्तृत्ववादी या अवतारवादी नहीं है :
क्यों और कैसे? कुछ लोग भ्रान्तिवश जैन तीर्थंकरों को ईश्वर का अवतार मानते हैं। वे भूल में हैं। जैनधर्म ईश्वरकर्तृत्ववादी या अवतारवादी नहीं है। ईश्वरकर्तृत्ववाद या
अवतारवाद के अनुसार सारी सृष्टि का कर्ता, धर्ता और संहर्ता ईश्वर है। समग्र संसार एकमात्र एक ईश्वर द्वारा संचालित और अनुशासित है। सभी प्राणी उसी के अंश हैं, प्रतिबिम्ब हैं। संसार की आवश्यकता के अनुसार ईश्वर पुनः शरीर धारण करके अवतार के रूप में इस संसार में आता है। ईश्वरवाद की मान्यता यह भी है कि हजारों भुजाओं वाला, दुष्टों का नाश और भक्तों का पालन करने वाला परोक्ष कोई एक ईश्वर है। वह यथासमय त्रस्त संसार पर दयाभाव लाकर गोलोक, सत्यलोक या बैकुण्ठधाम आदि से दौड़कर संसार में आता है, किसी के यहाँ जन्म (अवतार) लेता है और फिर लीला दिखाकर वापस लौट जाता है अथवा वह जहाँ कहीं भी है, वहीं से बैठा हुआ संसार की घड़ी की सुई फेर देता है और मनचाहा कर देता है। जैनदर्शन इस प्रकार के अवतारवाद को नहीं मानता। किसी महाशक्ति के अवतरण की कल्पना जैनदर्शन में नहीं है। यहाँ प्रत्येक आत्मा में परमात्मा बनने की क्षमता है। साथ ही, प्रत्येक आत्मा का अपना स्वतंत्र अस्तित्व माना जाता है। वह स्वयं अपनी सृष्टि का अपने अच्छे-बुरे का कर्ता, धर्ता, हर्ता है। अपने सुख-दुःख के लिए वह स्वयं उत्तरदायी है। अपनी सृष्टि का ईश्वर भी प्रत्येक आत्मा कैसे है ? इसे जैनदृष्टि से सिद्ध करते हुए आचार्य हरिभद्रसूरि ने कहा
“परमैश्वर्य-युक्तत्वान्मत आत्मैव वेश्वरः। स च कर्तेति निर्दोषः, कर्तृवादोव्यवस्थितः॥"
__-शास्त्रवार्ता समुच्चय, श्लो. १४ अथवा आत्मा ही ईश्वर है, ऐसा जैनदर्शन में माना गया है, क्योंकि प्रत्येक 'आत्मा (जीव) (वस्तु-स्वरूप की दृष्टि से सच्चे माने में अनन्त ज्ञानादि) परम ऐश्वर्ययुक्त है और वही (अपने शुभ-अशुभ कर्म का) कर्ता है ही। इस प्रकार ईश्वरकर्तृत्ववाद (युक्तिसंगतरूप से) व्यवस्थित (सिद्ध) हो सकता है।
वैदिक एकेश्वरवाद और जैनदृष्टि से यथार्थ एकेश्वरवाद यों तो वैदिकधर्म की मान्यतानुसार प्रतिपादित एकेश्वरवाद का जैनदर्शन युक्तियों और प्रमाणों से खण्डन करता है, किन्तु ‘एकेश्वर' शब्द में एक का 'स्थानांगसूत्र' में ‘एगे आया' सूत्र का अर्थ (स्वरूप की दृष्टि से) आत्मा एक (समान) है, वैसे 'समान' अर्थ ग्रहण किया जाए तो स्वरूप की दृष्टि से (समस्त आत्मारूप) ईश्वर समान है, यों एकेश्वरवाद का शुद्ध फलितार्थ घटित हो सकता
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